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गुरुवार, 30 जुलाई 2009

जीवन के सफर में जन्मदिन

जीवन का प्रवाह अपनी गति से चलता रहता है। कभी हर्ष तो कभी विषाद, यह सब जीवन में लगे रहते हैं। हर किसी का जीवन जीने का और जिंदगी के प्रति अपना नजरिया होता है। महत्व यह नहीं रखता कि आपने जीवन कितना लम्बा जिया बल्कि कितना सार्थक जिया। आज अपने जीवन के एक नए वर्ष में प्रवेश कर रही हूँ।

मेरी माँ बताती हैं कि मेरा जन्म 30 जुलाई की रात्रि एक बजे के करीब हुआ। ऐसे में पाश्चात्य समय को देखें तो मेरी जन्म तिथि 31 जुलाई को पड़ती है, पर भारतीय समयानुसार यह 30 जुलाई ही माना जायेगा। जीवन के इस सफर में न जाने कितने पड़ाव आये और जीवन का कारवां बढ़ता चला गया। जीवन के हर मोड़ पर जो चीज महत्वपूर्ण लगती है, वही अगले क्षण गौण हो जाती है। पल-प्रतिपल हमारी प्राथमिकताएं बदलती जाती हैं। सीखने का क्रम इसी के साथ अनवरत चलता रहता है।

कई लोग तो सरकारी सेवा में आने के बाद जीवन का ध्येय ही मात्र नौकरी मानने लगते हैं, पर मुझे लगता है कि व्यक्ति को रूटीनी जीवन जीने की बजाय नित नये एवं रचनात्मक ढंग से सोचना चाहिए। जैसे हर सुबह सूरज की किरणे नई होती हैं, हर पुष्प गुच्छ नई खुशबू से सुवासित होता है, प्रकृति की अदा में नयापन होता है, वैसे ही हर सुबह मानव जीवन को तरोताजा होकर अपने ध्येय की तरफ अग्रसर होना चाहिए। सफलताएं-असफलताएं जीवन में सिक्के के दो पहलुओं की भांति हैं, इन्हें आत्मसात कर आगे बढ़ने में ही जीवन प्रवाह का राज छुपा हुआ है।

जीवन के इस सफर में मैंने बहुत कुछ पाया तो बहुत कुछ पाने की अभिलाषा है। ईश्वर में आस्था, माता-पिता का आशीर्वाद, भाइयों व बहन का स्नेह, पति कृष्ण कुमार यादव जैसा प्यारा हमसफर, बेटी अक्षिता की खिलखिलाहट जीवन के हर मोड़ को आसान बना देती है और एक नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। इन सब के बीच आप मित्रों एवं शुभचिंतकों की हौसलाआफजाई भी टानिक का कार्य करती है। आप सभी का स्नेह एवं आशीष इसी प्रकार बना रहे तो जीवन का प्रवाह भी खूबसूरत बना रहेगा।

मेरे जन्मदिन पर तमाम शुभचिंतकों ने अपने ब्लाग पर मेरे लिए दो शब्द लिखे हैं-
युवा, यदुकुल, हिन्दी ब्लोगरों के जन्मदिन, नवसृजन इन सभी का आभार।

 
(चित्र में : पिताश्री, मम्मी और पतिदेव कृष्ण कुमार जी के साथ)

अमर उजाला में 'शब्द-शिखर' ब्लॉग की चर्चा


''शब्द शिखर'' पर 29 जुलाई 2009 को प्रस्तुत लेख अपने आस-पास नीम जरुर लगाइए को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'अमर उजाला' ने 30 जुलाई 2009 को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग कोना' में स्थान दिया! 'अमर उजाला' के ब्लॉग कोना में पाँचवीं बार शब्द-शिखर की चर्चा हुई है...आभार!

बुधवार, 29 जुलाई 2009

अपने आस-पास नीम जरुर लगाइए

मुझे जब भी कभी पौधे लगाने का मौका मिलता है तो मेरी पहली प्राथमिकता नीम होती है। पता नहीं क्यों बचपन से ही इससे इतना लगाव है। बचपन में नीम की ताजी पत्तियों को प्रतिदिन सुबह चबाने की पिताजी की सीख अभी भी अमल में लाती हूँ। मेरी बेटी अक्षिता कई बार मुझसे सवाल भी पूछती है और मैं बार-बार इसके फायदे गिनाती हूँ। वस्तुतः नीम मात्र वृक्ष नहीं, कुदरत की अद्भुत नियामत है। बचपन में तो हम लोग नीम की ही दातुन किया करते थे। टूथपेस्ट तो एक लम्बे अर्से बाद लोगों के जीवन में आया। अभी भी ग्रामीण लोग शहरों में जाते हैं तो भरसक कोशिश करते हैं कि सुबह-सुबह नीम की दातुन करने को मिल जाय। रेलवे स्टेशनों-बस स्टेशनों पर इसकी बिक्री करने वाले बहुतायत में दिख जाते हैं। जहाँ ब्रश करने के लिए टूथब्रश, टंग क्लीनर एवं टूथपेस्ट की आवश्यकता होती है वहीं दातुन तो थ्री इन वन है। यही नहीं तमाम रोगों में भी वैद्य-हकीम एवं घर-परिवार के लोग नीम का इस्तेमाल करते हैं। नीम के बारे में तमाम ग्रन्थों में भी जानकारी मिलती है। भारत में नीम का उपयोग प्राचीन काल से आयुर्वेदिक दवाओं में होता आया है। अब तो इसकी गूँज विदेशों में भी सुनाई देने लगी है। हर कोई इस प्राकृतिक उत्पाद का पेटेंट अपने नाम कराना चाहता है। वस्तुतः नीम का उपयोग आज हर बीमारी के लिए कारगर समझा जा रहा है।

नीम मेलिओडिया परिवार का पौधा है जिसके फल, बीज, तेल, पत्ते, जड़ें यहाँ तक कि पेड़ की छाल को भी औषधि के रूप में बखूबी प्रयोग किया जाता है। हालांकि एक पेड़ के रूप में नीम का अभ्युदय दक्षिण पूर्वी एशिया में हुआ लेकिन आज यह आस्ट्रेलिया से लेकर कैलिफोर्निया तक पाया जाता है। अकेले भारत में ही नीम के 180 लाख पेड़ हैं। नीम में टेरपोनाइड्स, अजादिरैचिन्स और सल्फर के 20 कंपाउंड के अलावा बहुत सारे रासायनिक तत्व होते हैं। एंटीसेप्टिक और एंटी-फंगल के रूप में नीम को एक्जिमा, अल्सर, एथलीट फूट, नाखून के फंगस, गला और दांत के संक्रमण के अलावा दाद, खाज और खुजली को ठीक करने हेतु उपयोग में लाया जाता है। एंटी वायरल के रूप में इसे स्मालपाक्स, चिकनपाक्स के अलावा अन्य वायरल रोगों के लिए उपयोग में लाते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि वायरल संक्रमण के इलाज में नीम भले ही ज्यादा कारगर न हो, परन्तु वायरल संक्रमण से बचाव के मामले में इसका कोई जवाब नहीं है।....तो फिर देर किस बात की। आप भी अपने घर के सामने एक नीम का पौधा लगाइये और स्वस्थ रहिए।

बुधवार, 22 जुलाई 2009

अमर उजाला में 'शब्द-शिखर' ब्लॉग की चर्चा

''शब्द शिखर'' पर 07 जुलाई 2009 को प्रस्तुत लेख बारिश का मौसम और भुट्टा को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'अमर उजाला' ने 22 जुलाई 2009 को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग कोना' में स्थान दिया! 'अमर उजाला' के ब्लॉग कोना में चौथी बार शब्द-शिखर की चर्चा हुई है...आभार!

सोमवार, 20 जुलाई 2009

ठग्गू के लड्डू और बदनाम कुल्फी

आपने बन्टी-बबली फिल्म देखी होगी तो अभिषेक बच्चन और रानी मुखर्जी के ऊपर फिल्माया गया वह गाना भी याद होगा-‘ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं।‘ यह गाना बहुत चर्चित हुआ था। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि यह गाना दरअसल एक लड्डू के दुकान की थीम से लिया गया है। जी हां, यदि कभी आपको कानपुर से रूबरू होने का मौका मिला होगा तो आपने यहाँ के ‘ठग्गू के लड्डू‘ का नाम सुना होगा। शुद्ध खोये और रवा व काजू के स्वादिष्ट लड्डू बनाने वाली इस दुकान के साइन बोर्ड पर आपको लिखा दिखेगा-‘ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं।‘ वस्तुतः बन्टी-बबली फिल्म के कुछ दृश्य कानपुर में भी फिल्माये गए थे। इस दुकान की मशहूरी का आलम यह है कि बॉलीवुड की मशहूर ठग जोड़ी बंटी और बबली भी अपनी फिल्म की शूटिंग के दौरान यहां के लड्डुओं के स्वाद चखने पहुंचे थे। वैसे ठग्गू के लड्डू के मुरीदों में बच्चन परिवार के साथ-साथ प्रेम चोपड़ा, संजय कपूर, हेमामालिनी भी शामिल हैं। बच्चन परिवार के इस रिश्ते को ठग्गू के लड्डू के मालिक अभी तक निभाते हैं। यही कारण था कि जब अभिषेक बच्चन की शादी हुई तो ठग्गू के लड्डू वहाँ भी भेजे गये। यह अलग बात है कि इन लड्डुओं को बच्चन परिवार ने अन्दर नहीं जाने दिया और ठग्गू के लड्डू के मालिक ने इन लड्डुओं को वहाँ बाहर उपस्थित राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के लोगों को खिलाकर चर्चा पायी। इस दृश्य की बाइट लगभग हर चैनल ने प्रसारित की और ठग्गू के लड्डू चर्चा के केन्द्रबिन्दु में बने रहे।

जब मेरे पति लखनऊ से स्थानान्तरित होकर कानपुर आये तो मुझे देखकर आश्चर्य हुआ कि दि मॉल पर हमारे सरकारी बंगले के ठीक बगल में ही ‘ठग्गू के लड्डू‘ की दुकान है। फिर क्या था जो भी कोई आता हम उसे ठग्गू के लड्डू अवश्य खिलाते। देखने में ये लड्डू ऐसे लगते हैं कि कई बार लोगों को भ्रम हो जाता कि ये घर पर बनाये हुए लड्डू हैं। ये ठग्गू भी बड़े अजीब हैं। इनकी ‘बदनाम कुल्फी‘ भी मशहूर है। और तो और चुनावी फिजा को भुनाने के लिए इन्होंने बकायदा ‘भाषण भोग लड्डू‘ भी लोगों को खिलाया। काजू,पिस्ते, बादाम और दूध से बनाए गए इस लड्डू के लिए बकायदा एक नारा भी बनाया गया कि अगर नेताओं को एक घंटे चुनावी भाषण देना हो तो एक लड्डू खाएँ और अगर ज्यादा देर तक भाषण देना है तो दो लड्डू खाएँ, ताकत और ऊर्जा दोनों बनी रहेगी। वस्तुतः 50 साल पहले इस दुकान की शुरुआत करने वाले राम अवतार पाण्डेय महात्मा गांधी की उस बात से बहुत प्रभावित हुए कि चीनी एक मीठा जहर है। इनकी एक वेबसाइट भी है और वहाँ पर तो कम्युनिस्ट पूड़ी और अपराधी आटा का भी जिक्र मिलता है।

फिलहाल हम तो ठग्गू के लड्डू के पड़ोसी हैं और हमारी बिटिया अक्षिता तो यहीं पर पैदा भी हुई है। वह तो बचपन से ही ठग्गू के लड्डू और बदनाम कुल्फी का आनंद लेती रही है। आप भी जब कभी कानपुर आयें तो ठग्गू के लड्डू और बदनाम कुल्फी का आनंद अवश्य लें !!

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

ब्लॉग पर एक दस्तक "दस्तक" की

ब्लागिंग का जमाना है. यहाँ तक की प्रिंट-मीडिया भी अब ब्लागर्स को महत्व देने लगा है. कई अख़बारों ने तो पाठकों के पत्र की जगह ब्लाग-कोना की ही शुरुआत कर दी है. नि:संदेह इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए. व्यंग्यकार सूर्य कुमार पाण्डेय की लिखी पंक्तियाँ उधृत कर रही हूँ-"अब तो हालत यह है कि अखबारों तक ने अपने पाठकों के पन्नों वाली स्पेस को इन ब्लागर्स के नाम आवंटित कर दिया है। दिनोदिन ब्लागियों की फिगर में इजाफा हो रहा है। बिना डाक टिकट, लेटरबाक्स के ही चिट्ठे लिखे जा रहे हैं। जवाब आ रहे हैं। जिनके पास एक अदद कंप्यूटर और नेट की सुविधा उपलब्ध है, वे इस चिट्ठाकारिता में अपना योगदान करने को स्वतंत्र हैं। कर भी रहे हैं। अब अंकल एसएमएस के बिग ब्रदर बाबू ब्लागानंद प्रकट हो चुके हैं। उनकी कृपा से बबुआ लव लेटरलाल, चाचा चिट्ठाचंद और पापा पोथाप्रसाद समेत फैमिली के टोटल मेंबर्स की लाइफ सुरक्षित है। सो चिट्ठी बिटिया की भी।" तो आप भी इंतजार कीजिये की कब कौन अख़बार-पत्रिका आपकी पोस्ट को रचनाओं के रूप में प्रकाशित करती है. फ़िलहाल लखनऊ से प्रकाशित पाक्षिक पत्रिका "दस्तक टाईम्स" (संपादक-राम कुमार सिंह, 215-रूपायन, नेहरू एन्क्लेव, गोमती नगर, लखनऊ)ने 15 जुलाई, 2009 के अंक में ब्लॉग-भारत स्तम्भ के तहत "चोखेर बाली" तथा "शब्द शिखर" पर प्रकाशित लेख "ईव-टीजिंग और ड्रेस कोड" को स्थान दिया है..आभार !!

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में भी थी हाथ मिलाने की परम्परा

हाथ मिलाने को देश-दुनिया में एक सामाजिक परंपरा के रूप में देखा जाता है, लेकिन इस औपचारिक प्रक्रिया को अगर गहरे अर्थों में देखा जाए तो पता चलेगा कि यह वह संकेत है, जिससे आपसी विश्वास, आत्मीयता और आत्मविश्वास का आकलन होता है। हाथ मिलाना किसी को भी परखने का सांकेतिक परीक्षण है। बड़ी कंपनियों में साक्षात्कारकर्ता प्रत्याशी से हाथ मिला पर उसके आत्मविश्वास और कंपनी के प्रति उसके भावी रूख का आकलन करते हैं। इसलिए इस दौरान हाथ मिलाने में गर्मजोशी का प्रदर्शन होना चाहिए क्योंकि कई बार ऐसा भी होता है कि हर स्तर पर प्रत्याशी का प्रदर्शन अच्छा होने के बाद भी हाथ मिलाने के दौरान ठंडी प्रतिक्रिया देने के आधार पर खारिज किया जा सकता है।

इतिहास में हालांकि इस बात के ठीक-ठाक कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि हाथ मिलाने की प्रक्रिया की शुरूआत कब से हुई, लेकिन इस बात के सबूत हैं कि यह परंपरा दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में भी थी। कई शोधकर्ताओं ने अपने शोध में पाया कि पश्चिमी देशों में हाथ मिलाने की शुरूआत 16वीं शताब्दी में ब्रिटिश कोर्ट में सर वाल्टर रालेघ ने की। माना जाता है कि हाथ मिलाने की शुरूआत शांति के प्रतीक के रूप में हुई जिसका अर्थ था कि हाथ मिलाने वाले के पास कोई हथियार नहीं है और उस पर विश्वास किया जा सकता है।

साक्षात्कार और व्यावसायिक संबंधों के अलावा हाथ मिलाना राजनीतिक दृष्टिकोण से भी अहम है। राजनीति के क्षेत्र में हाथ मिलाने को दो देशों के बीच अनुबंध, शांति समझौते और मित्रता का प्रतीक माना जाता है। राजनीति में हाथ मिलाने का महत्व इस बात से ही समझा जा सकता है कि दुनिया भर में राजनेताओं की आपस में हाथ मिलाने की तस्वीरें अखबारों व चैनलों की ज्यादा सुर्खियांँ बटोरती हैं। ब्रिटेन और कई यूरोपीय देशों में हाथ मिलाने को सम्मान का भी प्रतीक माना जाता है। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान अंग्रेज अधिकारी भारतीयों से हाथ मिलाना अपनी शान के खिलाफ समझते थे। ब्रिटेन की महारानी के बारे में आज भी कहा जाता है कि वे बहुत कम लोगों से हाथ मिलाना पसंद करती हैं। फिलहाल, हाथ मिलाना एक औपचारिक प्रक्रिया से जादा संबंधों की उष्णता, परस्पर संबंध एवं दुनियादारी का प्रतीक बना चुका है।

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

बारिश का मौसम और भुट्टा

बारिश का मौसम हो और भुट्टे (मक्का) की चर्चा न हो तो बात अधूरी लगती है। सड़क के किनारे खड़े होकर ठेले से भुट्टा लेने की बात याद आते ही उसकी सोधी खुशबू और भुट्टे पर बड़े मन से लगाये गये नीबू-नमक का अंदाज ही निराला होता है। पीले रंग का भुट्टा देखते ही अभी भी दिल मचल जाता है। वस्तुतः भुट्टे में कैरोटीन की मौजूदगी के कारण यह पीला होता है। भुट्टे (मक्का) को गरीबों का भोज्य पदार्थ भी कहा जाता है। इसमें कार्बोहाइड्रेट की अधिकता होती है तथा खनिज और विटामिन जैसे पोटेशियम, फासफोरस, आयरन और थायसीन जैसे तत्व भी होते हैं। वैसे भी विश्व में गेहूँ के बाद सबसे ज्यादा उत्पादन मक्के का ही होता है। इतिहास में झांके तो मक्के के उत्पादन की शुरूआत मैक्सिको में वहाँ के मूल निवासियों द्वारा 10,000 वर्ष पूर्व की गई थी।


उद्योगों में मक्के (भुट्टे) के प्रचुर इस्तेमाल और इसकी फूड वेल्यू के कारण मक्का विश्व की महत्वपूर्ण फसलों में से एक है। भुट्टे को खाने का अंदाज निराला है और इसमें कई पोषक तत्व भी मौजूद होते हैं। भुट्टा स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमन्द है। भुट्टे में एंटी आॅक्सीडेंट की अधिकता होती है, साथ ही इसके दानों को पकाने से फूलिक एसिड मिलता है जो शरीर की कैंसर से लड़ने की क्षमता को मजबूत करता है। भुट्टे से बनने वाला ऐसे में इसके सेवन से हृदय रोगों व कैंसर की संभावना कम हो जाती है। कार्न आयल कोलेस्ट्राल कम करने में मद्दगार होता है, अतः हृदय रोगियों हेतु काफी फायदेमन्द होता है। इस कार्न आयल में पाली अंसतृप्त फैटी एसिड (55 प्रतिशत), मोनो अंसतृप्त फैटी एसिड (32प्रतिशत) होता है। पर भुट्टा सबके लिए मुफीद भी नहीं होता क्योंकि इसमें ग्लाइकेमिक इंडेक्स (ब्लड शुगर बढ़ाने की क्षमता वाला तत्व) की मात्रा ज्यादा होती है, अतः डायबिटीज के रोगियों को इससे ज्यादा दिल नहीं लगाना चाहिए।
तो चलिए बारिश के मौसम में भुट्टे का मजा लेते हैं !!!

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

कहाँ गईं तितलियाँ

आज मेरी नन्ही बिटिया अक्षिता ने मुझसे तितली के बारे में जानकारी चाही। मैंने सोचा कि उसे अपने लान में जाकर तितली दिखाऊ। पर वहाँ पर मुझे कोई तितली नहीं दिखी। फिर मैंने पार्क की ओर रूख किया, तो वहाँ बड़ी मुश्किल से मुझे तितली देखने को मिली। तितली देखते ही अक्षिता तो खुश होकर ताली बजाने लगी, पर मैं सोच में पड़ गई। हम लोग बचपन में तितलियाँ पकड़ने के लिए घंटों बगीचे में दौड़ा करते थे। उनके रंग-बिरंगे पंखों को देखकर खूब खुश हुआ करते थे। पर अब तो लगता है कि फिजाओं में उड़ते ये रंग ठहर से गए हैं। अब रंगों से भरी तितलियाँ सिर्फ किस्से-कहानियों और किताबों तक सिमट गई हैं। जो तितली घर-घर के आसपास दिखती थी वह न जाने कहाँ विलुप्त होती गई और बड़े होने के साथ ही हम लोगों ने भी इस ओर गौर नहीं किया। पर आज बिटिया अक्षिता ने तितली के प्रति मेरी उत्सुकता को और भी बढ़ा दिया।

वस्तुतः तितलियों के कम होने के पीछे दिन पर दिन कम होते पेड़-पौधे काफी हद तक जिम्मेदार हैं। यही नहीं, घरों के बगीचों में फूलों पर कीटनाशक का प्रयोग तितलियों के लिए बहुत घातक साबित हो रहा है। तितलियों का फिजा से गायब होना बड़ा शोचनीय है। यह बिगड़ते पर्यावरण की तस्वीर है। ऐसा माना जाता है कि जहाँ तितलियाँ दिखती हैं वहाँ का पर्यावरण संतुलित होता है। अगर बात तितलियों के विभिन्न स्वरूपों की तो डफर बैंडेड, डफर टाइगर, क्रो स्पाटेड, डार्की क्रिमलेट, एंगल डार्किन, लीज ब्लू, ओक ब्लू, ब्लू फूजी, टिट आरकिड, क्यूपिट मूर, सफायर, बटरलाई मूथ, रायल चेस्टनेट, पीकाक हेयर स्ट्रीक, राजा चेस्टनट और इम्परर गोल्डन जैसी तितलियाँ पर्यावरण को संतुलित रखने में खासा योगदान देती हैं। पर ये सभी धीरे-धीरे खत्म होती जा रही हैं।

ऐसे में आज के बच्चों से पूछिए तो उन्हें तितलियों के रंग किताबों में या फिर किसी श्रृंगार रस की कविता में ही दिखाई देते हैं। न उन्हें तितलियाँ दिखाई देती हैं न उन्हें पकड़ने के लिए वे लालायित रहते हैं। क्रिकेट, मूवी, कंप्यूटर गेम और इंटरनेट ही उनकी रंगीन दुनिया है। आखिर बच्चे भी क्या करें, शहर में कम होते पेड़ पौधों की वजह से तितलियों को अपना भोजन नहीं मिल पा रहा। घरों में जो लोग बागवानी करते हैं वो अपने पौधों को कीटों से बचाने के लिए उसके ऊपर कीटनाशक स्प्रे कर देते हैं। इससे फूल जहरीला बन जाता है और जब तितली पेस्टीसाइड ग्रस्त इस फूल का परागण करती है तो मर जाती है।

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

अमर उजाला में 'शब्द-शिखर' ब्लॉग की चर्चा


''शब्द शिखर'' पर 01 जुलाई 2009 को प्रस्तुत लेख मेघों को मनाने का अंदाज अपना-अपना को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'अमर उजाला' ने 02 जुलाई 2009 को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग कोना' में स्थान दिया! 'अमर उजाला' के ब्लॉग कोना में तीसरी बार शब्द-शिखर की चर्चा हुई है...आभार! इसकी चर्चा प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा के तहत भी आप देख सकते हैं !!

बुधवार, 1 जुलाई 2009

मेघों को मनाने का अंदाज अपना-अपना

इसे पर्यावरण-प्रदूषण का प्रकोप कहें या पारिस्थितकीय असंतुलन। इस साल गर्मी ने हर व्यक्ति को रूला कर रख दिया। बारिश तो मानो पृथ्वी से रूठी हुई है। पृथ्वी पर चारों तरफ त्राहि-त्राहि मची हुई है। शिमला जैसी जिन जगहों को अनुकूल मौसम के लिए जाना जाता है, वहाँ भी इस बार गर्मी का प्रकोप दिखाई दे रहा है। ऐसे में रूठे बादलों को मनाने के लिए लोग तमाम परंपरागत नुस्खों को अपना रहे हैं। ऐसी मान्यता है कि बरसात और देवताओं के राजा इंद्र इन तरकीबों से रीझ कर बादलों को भेज देते हैं और धरती हरियाली से लहलहा उठती है।

इनमें सबसे प्रचलित नुस्खा मेंढक-मेंढकी की शादी है। मानसून को रिझाने के लिए देश के तमाम हिस्सों में चुनरी ओढ़ाकर बाकायदा रीति-रिवाज से मेंढक-मेंढकी की शादी की जाती है। इनमें मांग भरने से लेकर तमाम रिवाज आम शादियों की तरह होते हैं। एक अन्य प्रचलित नुस्खा महिलाओं द्वारा खेत में हल खींचकर जुताई करना है। कुछ अंचलों में तो महिलाए अर्धरात्रि को अर्धनग्न होकर हल खींचकर जुताई करतीं हैं। बच्चों के लिए यह अवसर काले मेघा को रिझाने का भी होता है और शरारतें करने का भी। वे नंगे बदन जमीन पर लोटते हैं और प्रतीकात्मक रूप से उन पर पानी डालकर बादलों को बुलाया जाता है। एक अन्य मजेदार परम्परा में गधों की शादी द्वारा इन्द्र देवता को रिझाया जाता है। इस अनोखी शादी में इंद्र देव को खास तौर पर निमंत्रण भेजा जाता है। मकसद साफ है इंद्र देव आएंगे तो साथ मानसून भी ले आएंगे। गधे और गधी को नए वस्त्र पहनाए जाते हैं और शादी के लिए बाकायदा मंडप सजाया जाता है, शादी खूब धूम-धाम से होती है। बरसात के अभाव में मनुष्य असमय दम तोड़ सकता है, इस बात से इन्द्र देवता को रूबरू कराने के लिए जीवित व्यक्ति की शव-यात्रा तक निकाली जाती है। इसमें बरसात के लिए एक जिंदा व्यक्ति को आसमान की तरफ हाथ जोड़े हुए अर्थी में लिटा दिया जाता है। तमाम प्रक्रिया ‘दाह संस्कार‘ की होती है। ऐसा करके इंद्र को यह जताने का प्रयास किया जाता है कि धरती पर सूखे से यह हाल हो रहा है, अब तो कृपा करो।

इन परम्पराओं से परे कुछेक परम्पराए वैज्ञानिक मान्यताओं पर भी खरी उतरती हैं। ऐसा माना जाता है कि पेड़-पौधे बरसात लाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसी के तहत पेड़ों का लगन कराया जाता है। कर्नाटक के एक गाँव में इंद्र देवता को मनाने के लिए एक अनोखी परंपरा है। यहां हाल ही में नीम के पौधे को दुल्हन बनाया गया और अश्वत्था पेड़ को दूल्हा। पूरी हिंदू रीति रिवाज से शादी संपन्न हुई जिसमें गाँव के सैकड़ों लोगों ने हिस्सा लिया। नीम के पेड़ को बाकायदा मंगलसूत्र भी पहनाया गया। लोगों का मानना है कि अलग-अलग प्रजाति के पेड़ों की शादी का आयोजन करने से झमाझम पानी बरसता है।

अब इसे परम्पराओं का प्रभाव कहें या मानवीय बेबसी, पर अंततः बारिश होती है लेकिन हर साल यह मनुष्य व जीव-जन्तुओं के साथ पेड़-पौधों को भी तरसाती हैं। बेहतर होता यदि हम मात्र एक महीने सोचने की बजाय साल भर विचार करते कि किस तरह हमने प्रकृति को नुकसान पहुँचाया है, उसके आवरण को छिन्न-भिन्न कर दिया है, तो निश्चिततः बारिश समय से होती और हमें व्यर्थ में परेशान नहीं होना पड़ता। अभी भी वक्त है, यदि हम चेत सके तो मानवता को बचाया जा सकता है अन्यथा हर वर्ष हम इसी प्रलाप में जीते रहेंगे कि अब तो धरती का अंत निकट है और कभी भी प्रलय हो सकती है।