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सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

चाँद पे निकला पानी

(आज सुबह के समय घर के सामने लॉन में बैठी थी कि हमारी बिटिया अक्षिता ने कुछ तुकबंदी आरंभ कर दी. जब शब्दों पर गौर किया तो वह चाँद पे निकला पानी को लेकर अपनी धुन में गाए जा रही थी. बस बैठे-बैठे हमने भी अक्षिता के शब्दों को सहेज दिया और इस रूप में यह बाल-गीत प्रस्तुत है-)::)

नानी सुनाए कहानी,
कितनी अद्भुत बानी।
लेकर बैठी तकली,
चाँद पे बुढ़िया रानी।

चाँद पे निकला पानी,
सुनकर हुई हैरानी।
बड़ी होकर जाऊँगी,
चाँद पे पीने पानी।

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

प्रकृति और मानव के बीच तादात्म्य स्थापित करता छठ-पर्व

भारतीय संस्कृति में त्यौहार सिर्फ औपचारिक अनुष्ठान मात्रभर नहीं हैं, बल्कि जीवन का एक अभिन्न अंग हैं। त्यौहार जहाँ मानवीय जीवन में उमंग लाते हैं वहीं पर्यावरण संबंधी तमाम मुद्दों के प्रति भी किसी न किसी रूप में जागरूक करते हैं। सूर्य देवता के प्रकाश से सारा विश्व ऊर्जावान है और इनकी पूजा जनमानस को भी क्रियाशील, उर्जावान और जीवंत बनाती है। भारतीय संस्कृति में दीपावली के बाद कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाने वाला छठ पर्व मूलतः भगवान सूर्य को समर्पित है। माना जाता है कि अमावस्या के छठवें दिन ही अग्नि-सोम का समान भाव से मिलन हुआ तथा सूर्य की सातों प्रमुख किरणें संजीवनी वर्षाने लगी। इसी कारण इस दिन प्रातः आकाश में सूर्य रश्मियों से बनने वाली शक्ति प्रतिमा उपासना के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। वस्तुतः शक्ति उपासना में षष्ठी कात्यायिनी का स्वरूप है जिसकी पूजा नवरात्रि के छठवें दिन होती है। छठ के पावन पर्व पर सौभाग्य, सुख-समृद्धि व पुत्रों की सलामती के लिए प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्य नारायण की पूजा की जाती है। आदित्य हृदय स्तोत्र से स्तुति करते हैं, जिसमें बताया गया है कि ये ही भगवान सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरूण हैं तथा पितर आदि भी ये ही हैं। वैसे भी सूर्य समूचे सौर्यमण्डल के अधिष्ठाता हैं और पृथ्वी पर ऊर्जा व जीवन के स्रोत कहा जाता है कि सूर्य की साधना वाले इस पर्व में लोग अपनी चेतना को जागृत करते हैं और सूर्य से एकाकार होने की अनुभूति प्राप्त कर आनंदित होते है।

भारतीय संस्कृति मंे समाहित पर्व अन्ततः प्रकृति और मानव के बीच तादाद्म्य स्थापित करते हैं। जब छठ पर्व पर महिलाएँ गाती हैं- कौने कोखी लिहले जनम हे सूरज देव या मांगी ला हम वरदान हे गंगा मईया....... तो प्रकृति से लगाव खुलकर सामने आता है। इस दौरान लोक सहकार और मेल का जो अद्भुत नजारा देखने को मिलता है, वह पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों को भी कल्याणकारी भावना के तहत आगे बढ़ाता है। यह अनायास ही नहीं है कि छठ के दौरान बनने वाले प्रसाद हेतु मशीनों का प्रयोग वर्जित है और प्रसाद बनाने हेतु आम की सूखी लकड़ियों को जलावन रूप में प्रयोग किया जाता है, न कि कोयला या गैस का चूल्हा। वस्तुतः छठ पर्व सूर्य की ऊर्जा की महत्ता के साथ-साथ जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को भी संजोता है।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

दीवाली में क्यों होती है लक्ष्मी-गणेश की पूजा

दीपावली को दीपों का पर्व कहा जाता है और इस दिन ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी एवं विवेक के देवता व विध्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि दीपावली मूलतः यक्षों का उत्सव है। दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते। दीपावली पर रंग-बिरंगी आतिशबाजी, लजीज पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, वे यक्षों की ही देन हैं। सभ्यता के विकास के साथ यह त्यौहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मी जी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है। गणेश जी को दीपावली पूजा में मंचासीन करने में शैव-सम्प्रदाय का काफी योगदान है। ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने गणेश जी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन् ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं। अतः कालांतर में लक्ष्मी-गणेश का संबध लक्ष्मी-कुबेर की बजाय अधिक निकट प्रतीत होने लगा। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णु जी का इसी दिन विवाह सम्पन्न होना भी माना गया हैै।

ऐसा नहीं है कि दीपावली का सम्बन्ध सिर्फ हिन्दुओं से ही रहा है वरन् दीपावली के दिन ही भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के चलते जैन समाज दीपावली को निर्वाण दिवस के रूप में मनाता है तो सिक्खों के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर की स्थापना एवं गुरू हरगोविंद सिंह की रिहाई दीपावली के दिन होने के कारण इसका महत्व सिक्खों के लिए भी बढ़ जाता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस को आज ही के दिन माँ काली ने दर्शन दिए थे, अतः इस दिन बंगाली समाज में काली पूजा का विधान है। यह महत्वपूर्ण है कि दशहरा-दीपावली के दौरान पूर्वी भारत के क्षेत्रों में जहाँ देवी के रौद्र रूपों को पूजा जाता है, वहीं उत्तरी व दक्षिण भारत में देवी के सौम्य रूपों अर्थात लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा माँ की पूजा की जाती है।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

प्रसन्नता भरे रंगों की अभिव्यक्ति है रंगोली

रंगोली किसे नहीं भाती। भारतीय संस्कृति में शुभ कार्यों एवं रंगोली का अनन्य संबंध है। होली हो या दीवाली, रंगोली के बिना अधूरी ही मानी जाती है.रंगोली एक संस्कृत शब्द है और इसका अर्थ है ’रंगों के द्वारा अभिव्यक्ति।’ रंगों से सजी रंगोली वास्तव में प्रसन्नता की भी अभिव्यक्ति है। उत्सवों के दौरान फर्श पर कच्चे रंगों से बनाई जाने वाली रंगोली एक हिंदू लोककला है। इसका जिक्र पुराणों में भी मिलता है। प्राचीन भारत में इसे मुख्य द्वार पर अतिथियों के स्वागत हेतु बनाया जाता था। यह ‘अतिथि देवो भव‘ की परंपरा का निर्वाह करता है। आज विभिन्न त्यौहारों-उत्सवों पर रंगोली बनाना भी इसी परंपरा से जुड़ा हुआ है, क्योंकि इसी दौरान लोग एक-दूसरे के घर अतिथि के रूप में उपहार इत्यादि लेकर शुभकामनाएं अर्पित करने पहुँचते हैं।

किंवदंतियों के अनुसार रंगोली का उद्भव भगवान ब्रह्मा के एक वचन से जोड़ा जाता है। इसके अनुसार एक राज्य के प्रमुख पुरोहित के पुत्र की मृत्यु से दुखी राजा व प्रजा ने भगवान ब्रह्मा से प्रार्थना की कि वे उसे जीवित कर दें। भगवान ब्रह्मा ने कहा कि यदि फर्श पर कच्चे रंगों से मुख्य पुरोहित के पुत्र की आकृति बनायी जायेगी तो वह उसमें प्राण डाल देंगे और ऐसा ही हुआ। इस मान्यता के अनुसार तब से ही आटे, चावल, प्राकृतिक रंगों एवं फूलों की पंखुड़ियों के द्वारा भगवान ब्रह्मा को धन्यवाद स्वरूप रंगोली बनाने की परंपरा आरम्भ हो गयी।

रंगोली की परंपरा का आरम्भ मूलतः महाराष्ट्र से माना जाता है। फिलहाल यह अनुपम परंपरा पूरे देश में प्रचालित हो चुकी है। दक्षिण भारत में रंगोली को कोलम, उत्तर भारत में चैर पूरना, राजस्थान में मांडणा, बिहार में अरिपन अथवा अइपन एवं पश्चिम बंगाल व उड़ीसा में अल्पना के रूप में जाना जाता है। रंगोली बनाने में पिसे हुए सूखे प्राकृतिक कच्चे रंगों को आटे में मिलाकर फर्श में सुन्दर आकृतियाँ बनायी जाती हैं। रंगोली बनाने में मूलतः अंगूठे और उंगली की चुटकी का इस्तेमाल किया जाता है परन्तु उपभोक्तावाद के इस दौर में रंगोली बनाने के लिए अब विशिष्ट किस्म के रोलर भी बाजार में उपलब्ध हैं।
 
...तो आप भी इस दीवाली पर रंगोली बनाइये और आतिशबाजी के रंगों के साथ इस रंग का भी आनंद उठाइए !!
 
-आकांक्षा यादव

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

‘इंगेजमेंट रिंग‘ की जगह ‘इंगेजमेंट बैण्ड‘

पिछले दिनों एक पारिवारिक मित्र के यहाँ होने जा रहे इंगेजमेंट हेतु उनके साथ रिंग खरीदने गई तो पता चला कि यह चलन तो अब पुराना हो चला है। अब दौर है इंगेजमेंट बैण्ड का। जब इस संबंध में ज्वैलर से बात की तो कई बातें सामने आईं, जिन्हें इस पोस्ट के माध्यम से शेयर कर रही हूँ।

सगाई की अंगूठी हर कोई सहेज कर रखता है। आखिर इससे एक अनूठे बंधन की शुरूआत जो होती है। वक्त के साथ अब इंगेजमेंट रिंग की जगह इंगेजमेंट बैण्ड सगाई की शान बना हुआ है। सोबर और स्मार्ट लुक की वजह से युवाओं के बीच ये बैण्ड काफी तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं। दिलचस्प तथ्य तो यह है कि इनका लुक आम अंगूठियों की तरह तड़क-भड़क वाला नहीं होता है। हालांकि अभी भी तमाम युवा इंगेजमेंट बैण्ड में पीले सोने का बेस ही पसंद कर रहे हैं पर तमाम लोगों को व्हाइट गोल्ड का बेस भा रहा है। इंगेजमेंट बैण्ड में सबसे बेहतरीन लुक प्लैटिनम का आता है। लेकिन यह हर किसी के खर्च के अंतर्गत आता भी नहीं। व्हाइट गोल्ड से बने इंगेजमेंट बैण्ड थोड़ा सस्ते में ही मिल जाते हैं। रीमिक्स के इस दौर में पीले सोने के साथ व्हाइट गोल्ड, व्हाइट गोल्ड पर रोडियम पालिश और व्हाइट गोल्ड के साथ कापर गोल्ड का मिश्रण भी फैशन में है। इनमें डायमण्ड का इस्तेमाल भी काफी पसंद किया जा रहा है। खूबसूरत आकार में दिखने वाले इन इंगेजमेंट बैण्ड में ऊपर से चैड़े और नीचे से पतले आकार वाले ‘ब्राड-टु-नैरो‘ और ‘नैरो-टु-ब्राड‘ बैण्ड का खूब चलन है।‘ लोरल पैटर्न वाले पतले बैण्ड भी लोगों की पसंद है। इनके निचले हिस्से में सोने का जालीदार फ्लोरल वर्क होता है और ऊपर डायमण्ड का जड़ाऊ लोरल पैटर्न मौजूद होता है। ये आम आदमी के लिए 7,000 रूपये से लेकर रईसो के लिए 40 लाख रूपए तक के मूल्य में आते हैं।

तो उन महानुभावों के लिए खुशखबरी है जो इंगेजमेंट रिंग की जगह कुछ नया प्रयोग देखना चाहते हैं और अपने को फैशन की इस रीमिक्स दुनिया के साथ कदमताल करते देखना चाहते हैं।

--आकांक्षा यादव

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

प्रेम : एक अनसुलझा रहस्य

प्यार क्या है। यह एक बड़ा अजीब सा प्रश्न है। पिछले दिनों इमरोज जी का एक इण्टरव्यू पढ़ रही थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि जब वे अमृता प्रीतम के लिए कुछ करते थे तो किसी चीज की आशा नहीं रखते थे। जाहिर है प्यार का यही रूप भी है, जिसमें व्यक्ति चीजें आत्मिक खुशी के लिए करता है न कि किसी अपेक्षा के लिए।
 
पर क्या वाकई यह प्यार अभी जिन्दा है ? हम वाकई प्यार में कोई अपेक्षा नहीं रखते। यदि रखते हैं तो हम सिर्फ रिश्ते निभाते हैं, प्यार नहीं? क्या हम अपने पति, बच्चों, माँ-पिता, भाई-बहन, से कोई अपेक्षा नहीं रखते।
 
...सवाल बड़ा जटिल है पर प्यार का पैमाना क्या है? यदि किसी दिन पत्नी या प्रेमिका  ने बड़े मन से खाना बनाया और पतिदेव या प्रेमी ने तारीफ के दो शब्द तक नहीं कहे, तो पत्नी का असहज हो जाना स्वाभाविक है। अर्थात् पत्नी/प्रेमिका अपेक्षा रखती है कि उसके अच्छे कार्यों को रिकगनाइज किया जाय। यही बात पति या प्रेमी पर भी लागू होती है। वह चाहे मैनर हो या औपचारिकता हमारे मुख से अनायास ही निकल पड़ता है- थैंक्यू या इसकी क्या जरूरत थी। यहाँ तक की आपसी रिश्तों में भी ये चीजें जीवन का अनिवार्य अंग बन गई हैं। जीवन की इस भागदौड़ में ये छोटे-छोटे शब्द एक आश्वस्ति सी देते हैं।
 
...पर अभी भी मैं कन्फ्यूज हूँ कि क्या प्यार में अपेक्षायें नहीं होती हैं? सिर्फ दूसरे की खुशी अर्थात् स्व का भाव मिटाकर चाहने की प्रवृत्ति ही प्यार कही जायेगी।
 
...अभी भी मेरे लिए प्रेम एक अनसुलझा रहस्य है।
 
-आकांक्षा यादव