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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

'उल्लास'....नव वर्ष का

नव वर्ष की बेला सामने आकर खड़ी है. न जाने कितने विचार आते हैं, जाते हैं. कुछ खोया तो कुछ पाया. नए साल को लेकर तमाम आकांक्षाएं उभरने लगती हैं, उत्साह मानो दूना हो जाता है, प्रेम की सुनहली किरणें चारों तरफ अपनी रश्मियाँ बिखेरने लगती हैं. ऐसे में याद आती है सुभद्रा कुमारी चौहान की इक कविता- उल्लास. सुभद्रा कुमारी चौहान के नाम से भला कौन अपरिचित होगा. झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई पर लिखी उनकी अमर रचना ''बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी..." ने उन्हें जग प्रसिद्ध बना दिया. पर आज उनकी कविता उल्लास बार-बार मन में गूंज रही है. आप भी इसका आनंद लें और नव वर्ष का उल्लास के साथ स्वागत करें-

शैशव के सुन्दर प्रभात का
मैंने नव विकास देखा।
यौवन की मादक लाली में
जीवन का हुलास देखा।

जग-झंझा-झकोर में
आशा-लतिका का विलास देखा।
आकांक्षा, उत्साह, प्रेम का
क्रम-क्रम से प्रकाश देखा

जीवन में न निराशा मुझको
कभी रुलाने को आई।
जग झूठा है यह विरक्ति भी
नहीं सिखाने को आई।

अरिदल की पहिचान कराने
नहीं घृणा आने पाई।
नहीं अशान्ति हृदय तक अपनी
भीषणता लाने पाई !!

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

क्रिसमस की धूम...

क्रिसमस त्यौहार बड़ा अलबेला है.यहाँ अंडमान में तो इसे खूब धूम धाम के साथ मनाया जा रहा है. पहली बार इस त्यौहार को इतने नजदीक से महसूस कर रही हूँ. पूरी दुनिया में धूमधाम से मनाया जाने वाला क्रिसमस प्रभु ईसा मसीह या यीशु के जन्म की खुशी में हर साल 25 दिसंबर को मनाया जाने वाला पर्व है। यह ईसाइयों के सबसे महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है। इस दिन को बड़ा दिन भी कहते हैं. दुनिया भर के अधिकतर देशों में यह 25 दिसम्बर को मनाया जाता है, पर नव वर्ष के आगमन तक क्रिसमस उत्सव का माहौल कायम रखता है. उत्सवी परंपरा के अनुसार क्रिसमस से 12 दिन के उत्सव क्रिसमसटाइड की भी शुरुआत होती है। एन्नो डोमिनी काल प्रणाली के आधार पर यीशु का जन्म, 7 से 2 ई.पू. के बीच हुआ था। विभिन्न देश इसे अपनी परम्परानुसार मानते हैं. जर्मनी तथा कुछ अन्य देशों में क्रिसमस की पूर्व संध्या यानि 24 दिसंबर को ही इससे जुड़े समारोह शुरु हो जाते हैं जबकि ब्रिटेन और अन्य राष्ट्रमंडल देशों में क्रिसमस से अगला दिन यानि 26 दिसंबर बॉक्सिंग डे के रूप में मनाया जाता है। कुछ कैथोलिक देशों में इसे सेंट स्टीफेंस डे या फीस्ट ऑफ़ सेंट स्टीफेंस भी कहते हैं। आर्मीनियाई अपोस्टोलिक चर्च 6 जनवरी को क्रिसमस मनाता है, वहीँ पूर्वी परंपरागत गिरिजा जो जुलियन कैलेंडर को मानता है वो जुलियन वेर्सिओं के अनुसार 25 दिसम्बर को क्रिसमस मनाता है, जो ज्यादा काम में आने वाले ग्रेगोरियन कैलेंडर में 7 जनवरी का दिन होता है क्योंकि इन दोनों कैलेंडरों में 13 दिनों का अन्तर होता है।

क्रिसमस शब्द का जन्म क्राईस्टेस माइसे अथवा ‘क्राइस्टस् मास’ शब्द से हुआ है। ऐसी मान्यता है कि पहला क्रिसमस रोम में 336 ई. में मनाया गया था। क्राइस्ट के जन्म के संबंध में नए टेस्टामेंट के अनुसार व्यापक रूप से स्वीकार्य ईसाई पौराणिक कथा है। इस कथा के अनुसार प्रभु ने मैरी नामक एक कुंवारी लड़की के पास गैब्रियल नामक देवदूत भेजा। गैब्रियल ने मैरी को बताया कि वह प्रभु के पुत्र को जन्म देगी तथा बच्चे का नाम जीसस रखा जाएगा। वह बड़ा होकर राजा बनेगा, तथा उसके राज्य की कोई सीमाएं नहीं होंगी। देवदूत गैब्रियल, जोसफ के पास भी गया और उसे बताया कि मैरी एक बच्चे को जन्म देगी, और उसे सलाह दी कि वह मैरी की देखभाल करे व उसका परित्याग न करे। जिस रात को जीसस का जन्म हुआ, उस समय लागू नियमों के अनुसार अपने नाम पंजीकृत कराने के लिए मैरी और जोसफ बेथलेहेम जाने के लिए रास्ते में थे। उन्होंने एक अस्तबल में शरण ली, जहां मैरी ने आधी रात को जीसस को जन्म दिया तथा उसे एक नांद में लिटा दिया। इस प्रकार प्रभु के पुत्र जीसस का जन्म हुआ।

आजकल क्रिसमस पर्व धर्म की बंदिशों से परे पूरी दुनिया में बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है.क्रिसमस के दौरान एक दूसरे को आत्मीयता के साथ उपहार देना, चर्च में समारोह, और विभिन्न सजावट करना शामिल है। सजावट के दौरान क्रिसमस ट्री, रंग बिरंगी रोशनियाँ, बंडा, जन्म के झाँकी और हॉली आदि शामिल हैं। क्रिसमस ट्री तो अपने वैभव के लिए पूरे विश्व में लोकप्रिय है। लोग अपने घरों को पेड़ों से सजाते हैं तथा हर कोने में मिसलटों को टांगते हैं। चर्च मास के बाद, लोग मित्रवत् रूप से एक दूसरे के घर जाते हैं तथा दावत करते हैं और एक दूसरे को शुभकामनाएं व उपहार देते हैं। वे शांति व भाईचारे का संदेश फैलाते हैं।

सेंट बेनेडिक्ट उर्फ सान्ता क्लाज़, क्रिसमस से जुड़ी एक लोकप्रिय पौराणिक परंतु कल्पित शख्सियत है, जिसे अक्सर क्रिसमस पर बच्चों के लिए तोहफे लाने के साथ जोड़ा जाता है. मूलत: यह लाल व सफेद ड्रेस पहने हुए, एक वृद्ध मोटा पौराणिक चरित्र है, जो रेन्डियर पर सवार होता है, तथा समारोहों में, विशेष कर बच्चों के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह बच्चों को प्यार करता है तथा उनके लिए चाकलेट, उपहार व अन्य वांछित वस्तुएं लाता है, जिन्हें वह संभवत: रात के समय उनके जुराबों में रख देता है।

आप सभी लोगों को क्रिसमस पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !!

रविवार, 19 दिसंबर 2010

वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण की अनुपम 'परिकल्पना'

हिंदी ब्लागिंग में नित नए प्रयोग हो रहे हैं. कोई रचनाधर्मिता के स्तर पर तो कहीं विश्लेषण के स्तर पर. इन सबके बीच लखनऊ के ब्लागर रवीन्द्र प्रभात ने ब्लागोत्सव-2010 और परिकल्पना के माध्यम से नई पहचान बनाई है। आजकल परिकल्पना ब्लॉग के माध्यम से रवीन्द्र जी वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-2010 पर ध्यान लगाये हुए हैं. बड़ी खूबसूरती से साल-भर चली गतिविधियों, ब्लॉग जगत की हलचलों, नए-पुराने चेहरों को आत्मसात करते हुए रवीन्द्र जी का यह व्यापक विश्लेषण यथासंभव हर सक्रिय हिंदी ब्लागर को सहेजने की कोशिश करता है. यह विश्लेषण नए ब्लागरों के लिए प्राण-वायु का कार्य करता है, तो पुरानों के लिए पीछे मुड़कर देखने का एक मौका देता है. यह हिंदी ब्लाग-जगत को आत्मविश्लेषण की शक्ति देता है तो शोधपरक रूप में प्रस्तुत सभी पोस्ट महत्वपूर्ण पोस्टों को इतिहास के गर्त में जाने से बचाते भी हैं. मुझे लगता है कि हर हिंदी ब्लागर को परिकल्पना पर प्रस्तुत इस वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-2010 पर एक चौकन्नी नजर जरुर डालनी चाहिए और इसे प्रोत्साहित करना चाहिए. फ़िलहाल रवीन्द्र प्रभात जी को लगातार दूसरे वर्ष इस अनुपम ब्लॉग-विश्लेषण के लिए बधाइयाँ और साधुवाद !!

वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-2010 (भाग-5) की शुरुआत रवीन्द्र प्रभात जी ने हमारे ब्लॉगों के विश्लेषण से ही की है, तो लगता है कि हम भी कुछ ठीक-ठाक कर रहे हैं. अन्यथा हम तो अपने को इस क्षेत्र में घुसपैठिया ही मानते थे. बकौल रवीन्द्र प्रभात- पिछले भाग में जो साहित्य सृजन की बात चली थी उसे आगे बढाते हुए मैं सबसे पहले जिक्र करना चाहूंगा एक ऐसे परिवार का जो पद-प्रतिष्ठा-प्रशंसा और प्रसिद्धि में काफी आगे होते हुए भी हिंदी ब्लोगिंग में सार्थक हस्तक्षेप रखता है । साहित्य को समर्पित व्यक्तिगत ब्लॉग के क्रम में एक महत्वपूर्ण नाम उभरकर सामने आया है वह शब्द सृजन की ओर , जिसके संचालक है इस परिवार के मुखिया के के यादव । ये जून -२००८ से सक्रिय ब्लोगिंग से जुड़े हैं । इनका एक और ब्लॉग है डाकिया डाक लाया । यह ब्लॉग विषय आधारित है तथा डाक विभाग के अनेकानेक सुखद संस्मरणों से जुडा है।

आकांक्षा यादव इनकी धर्मपत्नी है और ये हिंदी के चार प्रमुख क्रमश: शब्द शिखर, उत्सव के रंग, सप्तरंगी प्रेम और बाल दुनिया ब्लॉग की संचालिका हैं औरइनकी एक नन्ही बिटिया है जिसे पूरा ब्लॉग जगत अक्षिता पाखी (ब्लॉग : पाखी की दुनिया) के नाम से जानता है, इस वर्ष के श्रेष्ठ नन्हा ब्लोगर का अलंकरण पा चुकी है , चुलबुली और प्यारी सी इस ब्लोगर को कोटिश: शुभकामनाएं ! इनसे जुड़े हुए दो नाम और है एक राम शिवमूर्ति यादव और दूसरा नाम अमित कुमार यादव , जिन्होनें वर्ष -२०१० में अपनी सार्थक और सकारात्मक गतिविधियों से हिंदी ब्लॉगजगत का ध्यान खींचने में सफल रहे हैं । ये एक सामूहिक ब्लॉग भी संचालित करते हैं जिसका नाम है युवा जगत । यह ब्लॉग दिसंबर-२००८ में शुरू हुआ और इसके प्रमुख सदस्य हैं अमित कुमार यादव, कृष्ण कुमार यादव, आकांक्षा यादव, रश्मि प्रभा, रजनीश परिहार, राज यादव, शरद कुमार, निर्मेश, रत्नेश कुमार मौर्या, सियाराम भारती, राघवेन्द्र बाजपेयी आदि।

इसी प्रकार वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-2010 (भाग-2) के आरंभ में लिखे वाक्य कि- वर्ष-२०१० की शुरुआत में जिस ब्लॉग पर मेरी नज़र सबसे पहले ठिठकी वह है शब्द शिखर , जिस पर हरिवंशराय बच्चन का नव-वर्ष बधाई पत्र !! प्रस्तुत किया गया ।

वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-2010 (भाग-1) में भी रवीन्द्र जी ने हमारे ब्लॉगों की चर्चा की है. जून-२००८ से हिंदी ब्लॉगजगत में सक्रिय के. के. यादव का वर्ष-२०१० में प्रकाशित एक आलेख अस्तित्व के लिए जूझते अंडमान के आदिवासी ,वर्ष-२००८ से दस ब्लोगरों क्रमश: अमित कुमार यादव, कृष्ण कुमार यादव, आकांक्षा यादव, रश्मि प्रभा, रजनीश परिहार, राज यादव, शरद कुमार, निर्मेश, रत्नेश कुमार मौर्या, सियाराम भारती, राघवेन्द्र बाजपेयी के द्वारा संचालित सामूहिक ब्लॉग युवा जगत पर इस वर्ष प्रकाशित एक आलेख हिंदी ब्लागिंग से लोगों का मोहभंग ,२४ जून २००९ से सक्रीय और लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान से सम्मानित वर्ष की श्रेष्ठ नन्ही ब्लोगर अक्षिता पाखी के ब्लॉग पर प्रकाशित आलेख डाटर्स-डे पर पाखी की ड्राइंग... १० नवम्बर-२००८ से सक्रीय राम शिव मूर्ति यादव का इस वर्ष प्रकाशित आलेख मानवता को नई राह दिखाती कैंसर सर्जन डॉ. सुनीता यादव, .............................आदि को पाठकों की सर्वाधिक सराहना प्राप्त हुयी है .यहाँ मुझे याद है, जब पिछले वर्ष 21 दिसंबर, 2009 को प्रस्तुत वर्ष 2009 : हिंदी ब्लाग विश्लेषण श्रृंखला (क्रम-21) में भी रवीन्द्र जी ने डाकिया डाक लाया ब्लॉग के माध्यम से हमें भी हिंदी ब्लॉग जगत के 9 उपरत्नों में दूसरे स्थान पर शामिल किया था। यह हमारे लिए बेहद प्रसन्नता का क्षण था.रवीन्द्र प्रभात जी द्वारा प्रस्तुत ब्लॉगों के विश्लेषण से कम से कम हमें भी ब्लागर होने का अहसास हुआ है और लगता है कि हम भी कुछ ठीक-ठाक सा कर रहे हैं. अन्यथा हम तो अपने को इस क्षेत्र में घुसपैठिया ही मानते थे. खैर इसी बहाने सुदूर अंडमान-निकोबार की चर्चा भी ब्लागिंग में हो रही है, जो काफी उपेक्षित माना जाता है. एक बार पुन: रवीन्द्र प्रभात जी को लगातार दूसरे वर्ष इस अनुपम ब्लॉग-विश्लेषण के लिए बधाइयाँ और साधुवाद और रवीन्द्र प्रभात जी व उन सभी स्नेही ब्लोगर्स-पाठकों का आभार जिनकी बदौलत हम आज यहाँ पर हैं !!

...तो आप भी एक बार रवीन्द्र प्रभात जी की परिकल्पना में शामिल हों, और वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-2010 की सैर कर अपने विचार वहां जरुर दें। आखिर कोई तो है जो लखनऊ की नज़ाकत, नफ़ासत,तहज़ीव और तमद्दून की जीवंतता को ब्लागिंग में भी बरकरार रखकर अपने-पराये के भेद से परे सबकी सोच रहा है !!

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

भारत में फैलता एन0 जी0 ओ0 का बाजार

आजकल भारत में एन0जी0ओ0 खोलना एक व्यवसाय हो गया है। हर व्यक्ति किसी-न-किसी बहाने एन0जी0ओ0 खोलता है और फंडिंग के लिए बड़े-बड़े दावे करता है। हाल के दिनों में देश भर में एन0जी0ओ0 संस्थाओं की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। मार्च 2005 की रिपोर्ट के अनुसार इनकी संख्या 15 लाख थी। ये सब मिलकर 30 हजार करोड़ रुपये हैंडल कर रहे थे। यह राशि विभिन्न कार्यक्रमों के लिए संस्थाओं को सरकारी, गैर सरकारी एवं अंतरराष्ट्रीय स्रोतों से मिलती हैं। इस आधार पर देखा जाय तो भारत को एक सुखी एवं समृद्ध राष्ट्र होना चाहिए। पर यदि ऐसा नहीं है तो जरूर दाल में कुछ काला है। गरीबी-उन्मूलन, शिक्षा-प्रसार, स्वास्थ्य-सेवाओं, धार्मिक कार्यों सहित तमाम कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर चल रहे इन एन0जी0ओ0 का नेटवर्क सिर्फ देश ही नहीं विदेशों में भी फैला है, जहाँ से उन्हें धमार्थ-कल्याणार्थ-परोपकरार्थ डाॅलरों में सहायता मिलती है। इन संस्थाओं पर आर्थिक कृपा करने वालों में व्यक्तिगत दानियों का नाम सबसे ऊपर है। ब्रिटेन में एक विदेशी एनजीओ की ओर से किए गए एक आंतरिक अध्ययन के मुताबिकए निजी तौर पर दिया दान सबसे बडा़ आर्थिक सा्रेत रहा है। इन दाताओं के बूते सन 2005 में 2,200 करोड़ से 8,100 करोड़ रुपए संस्थाओं पर न्यौछावर किए जाने का अनुमान लगाया गया । फिलहाल जो अनुमान मिल रहे हैं उसके अनुसार एन0जी0ओ0 और गैर-लाभान्वित संस्थाओं ने सालाना 40 हजार करोड़ से 80 हजार करोड़ रुपए इमदाद के जरिए जुटाए हैं। इनके लिए सबसे बडी़ दानदाता सरकार है जिसने ग्या़रहवीं पंचवर्षीय योजना में सामाजिक क्षेत्र के लिए 18 हजार करोड़ रुपए रखे। इसके बाद विदेशी दानदाताओं का नंबर आता है। सन 2007-08 में इन एन0जी0ओ0 ने 9,700 करोड़ दान से जुटाए। तकरीबन 1600-2000 करोड़ रुपए धार्मिक संस्थाएं खोलने के लिए दान में दिए गए। ऐसी संस्थाओं में तिरुमला तिरुपति देवास्थानम का नाम भी लिया जाता है, जिन्हें दान में प्रचुर धन ही नहीं हीरे-जवाहरात भी मिलते हैं।

यह आश्चर्यजनक पर सच है कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा सक्रिय गैर-सरकारी, गैर-लाभन्वित संगठन भारत में हैं। पीपुल्स रिसर्च इन एशिया (पी॰आर॰आइ॰ए॰) ने अपने एक अध्ययन के बाद देश भर में 12 लाख एन॰ जी॰ ओ॰ को सूचीबद्ध किया था, जिनके बीच करीब 18 हजार करोड़ रुपये का मोबलाइजेशन हुआ। इन संस्थाओं में से 26.5 फीसदी धार्मिक गतिविधियों में, 21.3 फीसदी सामुदायिक व सामाजिक सेवा कार्यों में, 20.4 फीसदी शिक्षा के क्षेत्र में, 18 फीसदी खेलकूद एवं कला-संस्कृति में तथा 6.6 फीसदी स्वास्थ्य के क्षेत्र में व शेष अन्य क्षेत्रों में कार्यरत थीं। भारत सरकार के योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश भर में केंद्र एवं राज्य सरकार के विभिन्न मंत्रालयों से संबद्ध 30 हजार एन॰जी॰ ओ॰ सूचीबद्ध हैं। सरकार की ओर से कराए गए एक अन्य अध्ययन में बीते साल तक इन संस्थाओं की संख्या 30,30,000 (तीस लाख तीस हजार) तक पहुँच चुकी थी अर्थात 400 से भी कम भारतीयों के पीछे एक एन0जी0ओ0। यह तादाद देश में प्राथमिक विद्यालयों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से कई गुना ज्यादा है। इस अध्ययन के मुताबिक महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 4.8 लाख, आंध्रप्रदेश (4.6 लाख), उत्तर प्रदेश (4.3 लाख), केरल (3.3 लाख), कर्नाटक (1.9 लाख), तमिलनाडु (1.4 लाख), ओडीशा (1.3 लाख) और राजस्थान में 1 लाख एन0जी0ओ0 पंजीकृत हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि अस्सी फीसदी से ज्यादा पंजीकरण दस राज्यों से हैं। इन संगठनों की असली संख्या और भी ज्यादा हो सकती है क्योंकि यह ब्यौरा तो मात्र उन संस्थाओं का है जो सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1860 या मुंबई पब्लिक ट्रस्ट एक्ट या दूसरे राज्यों में समकक्ष एक्ट के तहत पंजीकृत की जा चुकी हैं। गौरतलब है कि ये संस्थाएं कई कानूनों के तहत पंजीकृत की जा सकती हैं। इनमें से प्रमुख हैं- सोसाइटीज एक्ट 1860, रिलिजियस इनडाउमेंट एक्ट 1863, इंडियन ट्रस्ट एक्ट 1882, द चैरिटेबल एंड रिलिजियस ट्रस्ट एक्ट 1920, द मुसलमान वक्फ एक्ट 1923, पब्लिक ट्रस्ट एक्ट 1950, इंडियन कंपनीज एक्ट 1956 ;दफा 25द्ध इत्यादि।

पिछले दशकों में जिस तरह से गैर-सरकारी संगठनों यानी एन0जी0ओ0 की तादाद बढी़ हैए उसी अनुपात में दानी बढे़ हैं। स्पष्ट है कि भारत में एन0 जी0 ओ0 खोलने और उसके नाम पर वारे-न्यारे करने का बाजार भी बढ़ रहा है। सरकार से पैसे मिलने लगे तो संस्थाएं भी बनने लगीं। एन॰ जी॰ ओ॰ की संख्या बढ़ाने में सेवानिवृत लोगों का बड़ा हाथ है। इनमें ज्यादातर संस्थाएं कागजी हैं, जो न तो काम करने वाली हैं और न ही टिकाऊ। दुर्भाग्यवश सरकार सिर्फ निबंधन करती है, संस्थाएं क्या कर रही है, इससे मतलब नहीं होता। ऐसे में इन एन॰ जी॰ ओ॰ में प्रतिबद्धता की भी कमी झलकती है। आँकडों पर गौर करें तो सन 1970 तक महज 1.44 लाख पंजीकृत संस्थाएँ थीं वहीँ अगले तीन दशकों में बढ़कर क्रमश: 1.79, 5.52 और 11.22 लाख हो गईं । वर्ष 2000 में सबसे ज्यादा संस्थाएँ पंजीकृत हुईं । हालांकि अपने देश भारत में निजी क्षेत्र की कंपनियाँ बडे़ दानियों के रुप में सामने नहीं आई हैं। वे इस तरह के सामाजिक कामों के लिए अपने मुनाफे का एक फीसदी से भी कम दान में देती हैं। जबकि ब्रिटेन और अमेरिका में निजी क्षेत्र की कंपनियाँ मुनाफे का डेढ़ से दो फीसदी तक भलाई और धर्मार्थ काम के लिए दान देती हैं। ऐसे में भारत में निजी क्षेत्र की कंपनियों को जनकल्याण के लिए अभी जागना है। वहीं यह भी जरूरी हो गया है कि इन तमाम एन0जी0ओ0 इत्यादि की सोशल-आडिटिंग भी कायदे से सुनिश्चित किया जाय ताकि जनकल्याण के नाम पर एन0जी0ओ0 खोलकर अपना कल्याण करने की प्रवृति दूर हो सके।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

जनसत्ता में 'शब्द-शिखर' की तितलियाँ

'शब्द शिखर' पर 21 अक्तूबर, 2010 को प्रस्तुत पोस्ट 'कहाँ गईं वो तितलियाँ' को प्रतिष्ठित दैनिक अख़बार जनसत्ता के नियमित स्तंभ ‘समांतर’ में 7 दिसंबर जून, 2010 को 'गुम होती तितली' शीर्षक से स्थान दिया गया है. जनसत्ता में पहली बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है और समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 23वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा दैनिक जागरण, अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

(चित्र Hindi Blogs In Media से साभार)

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

जीवन पुन: अपने रौब में....

आखिरकार एक लम्बे अन्तराल पश्चात् पुन: सपरिवार पोर्टब्लेयर में. इस अन्तराल के दौरान जहाँ एक बार पुन: मत्रितव सुख का सौभाग्य प्राप्त हुआ, वहीँ हमारी शादी की छठवीं सालगिरह भी पूरी हो गई. 27 अक्तूबर, 2010 की रात्रि 11: 10 पर बनारस के हेरिटेज हास्पिटल में बिटिया का जन्म हुआ और 27 नवम्बर को वह एक माह की हो गई. ठीक उसके अगले दिन 28 नवम्बर को हमारी शादी की की सालगिरह थी और अब हमारी शादी के छ: साल पूरे हो गए। 28 नवम्बर को ही हम लोग आजमगढ़ से बनारस पहुंचे और फिर विमान द्वारा सीधे कोलकाता. यह भी एक सौभाग्य रहा की सालगिरह विमान में ही सेलिब्रेट हो गया. खैर अगले दिन, 29 नवम्बर की सुबह हम पोर्टब्लेयर में थे. इक सुखद और खुशनुमा एहसास. ठण्ड का नामलेवा नहीं, तापमान 32 डिग्री सेल्सियस. पर्यटकों के लिए अंडमान का यह समय किसी जन्नत से कम नहीं होता है. इस समय पोर्टब्लेयर में जितनी हलचल दिखती है, वह वाकई देखने लायक होती है. एक लम्बे अन्तराल पश्चात् जीवन पुन: अपने रौब में लौट कर आ गया है. इस बीच बिटिया के जन्म और शादी की सालगिरह पर आप सभी की शुभकामनाओं, बधाई और स्नेह के लिए हार्दिक आभार. अब ब्लॉग पर निरंतरता बनी रहेगी....!!

रविवार, 28 नवंबर 2010

आज हमारी शादी की सालगिरह है..


28 नवम्बर का दिन हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है. आज हमारी शादी की सालगिरह है. इस वर्ष हमारी शादी के छ: साल पूरे हो गए। 28 नवम्बर, 2004 (रविवार) को मैं और कृष्ण कुमार जी जीवन के इस अनमोल पवित्र बंधन में बंधे थे. पर वक़्त कितनी तेजी से करवटें बदलता रहा, पता ही नहीं चला. फ़िलहाल आज हम लोग बनारस से कोलकात्ता पहुंचेंगें और अगले दिन पोर्टब्लेयर. सालगिरह का इससे अच्छा तोहफा क्या हो सकता है कि इक लम्बे समय बाद हम एक साथ होंगें !!

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

कुँवारी किरणें


सद्यःस्नात सी लगती हैं
हर रोज सूरज की किरणें।

खिड़कियों के झरोखों से
चुपके से अन्दर आकर
छा जाती हैं पूरे शरीर पर
अठखेलियाँ करते हुये।

आगोश में भर शरीर को
दिखाती हैं अपनी अल्हड़ता के जलवे
और मजबूर कर देती हैं
अंगड़ाईयाँ लेने के लिए
मानो सज धज कर
तैयार बैठी हों
अपना कौमार्यपन लुटाने के लिए।

कृष्ण कुमार यादव

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

खूब लड़ी मरदानी, अरे झांसी वारी रानी (जन्मतिथि 19 नवम्बर पर विशेष)

स्वतंत्रता और स्वाधीनता प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी से आत्मसम्मान और आत्मउत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। भारतीय राष्ट्रीयता को दीर्घावधि विदेशी शासन और सत्ता की कुटिल-उपनिवेशवादी नीतियों के चलते परतंत्रता का दंश झेलने को मजबूर होना पड़ा था और जब इस क्रूरतम कृत्यों से भरी अपमानजनक स्थिति की चरम सीमा हो गई तब जनमानस उद्वेलित हो उठा था। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए क्रान्ति यज्ञ की बलिवेदी पर अनेक राष्ट्रभक्तों ने तन-मन जीवन अर्पित कर दिया था।

क्रान्ति की ज्वाला सिर्फ पुरुषों को ही नहीं आकृष्ट करती बल्कि वीरांगनाओं को भी उसी आवेग से आकृष्ट करती है। भारत में सदैव से नारी को श्रद्धा की देवी माना गया है, पर यही नारी जरूरत पड़ने पर चंडी बनने से परहेज नहीं करती। ‘स्त्रियों की दुनिया घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करती इन वीरांगनाओं के बिना स्वाधीनता की दास्तान अधूरी है, जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिया। 1857 की क्रान्ति में जहाँ रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, बेगम जीनत महल, रानी अवन्तीबाई, रानी राजेश्वरी देवी, झलकारी बाई, ऊदा देवी, अजीजनबाई जैसी वीरांगनाओं ने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिये, वहीं 1857 के बाद अनवरत चले स्वाधीनता आन्दोलन में भी नारियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इन वीरांगनाओं में से अधिकतर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे किसी रजवाड़े में पैदा नहीं हुईं बल्कि अपनी योग्यता की बदौलत उच्चतर मुकाम तक पहुँचीं।

1857 की क्रान्ति की अनुगूँज में जिस वीरांगना का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, वह झांसी में क्रान्ति का नेतृत्व करने वाली रानी लक्ष्मीबाई हैं। 19 नवम्बर 1835 को बनारस में मोरोपंत तांबे व भगीरथी बाई की पुत्री रूप मे लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था, पर प्यार से लोग उन्हंे मनु कहकर पुकारते थें। काशी में रानी लक्ष्मीबाई के जन्म पर प्रथम वीरांगना रानी चेनम्मा को याद करना लाजिमी है। 1824 में कित्तूर (कर्नाटक) की रानी चेनम्मा ने अंगेजों को मार भगाने के लिए ’फिरंगियों भारत छोड़ो’ की ध्वनि गुंजित की थी और रणचण्डी का रूप धर कर अपने अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व रानी चेनम्मा काशीवास करना चाहती थीं पर उनकी यह चाह पूरी न हो सकी थी। यह संयोग ही था कि रानी चेनम्मा की मौत के 6 साल बाद काशी में ही लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ।

बचपन में ही लक्ष्मीबाई अपने पिता के साथ बिठूर आ गईं। वस्तुतः 1818 में तृतीय मराठा युद्ध में अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय की पराजय पश्चात उनको 8 लाख रूपये की वार्षिक पंेशन मुकर्रर कर बिठूर भेज दिया गया। पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ उनके सरदार मोरोपंत तांबे भी अपनी पुत्री लक्ष्मीबाई के साथ बिठूर आ गये। लक्ष्मीबाई का बचपन नाना साहब के साथ कानपुर के बिठूर में ही बीता। लक्ष्मीबाई की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई। 1853 में अपने पति राजा गंगाधर राव की मौत पश्चात् रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी का शासन सँभाला पर अंग्रेजों ने उन्हें और उनके दत्तक पुत्र को शासक मानने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजी सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई को पांच हजार रूपये मासिक पेंशन लेने को कहा पर महारानी ने इसे लेने से मना कर दिया। पर बाद में उन्होंने इसे लेना स्वीकार किया तो अंग्रेजी हुकूमत ने यह शर्त जोड़ दी कि उन्हें अपने स्वर्गीय पति के कर्ज को भी इसी पेंशन से अदा करना पड़ेगा, अन्यथा यह पेंशन नहीं मिलेगी। इतना सुनते ही महारानी का स्वाभिमान ललकार उठा और अंग्रेजी हुकूमत को उन्होंने संदेश भिजवाया कि जब मेरे पति का उत्तराधिकारी न मुझे माना गया और न ही मेरे पुत्र को, तो फिर इस कर्ज के उत्तराधिकारी हम कैसे हो सकते हैं। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को स्पष्टतया बता दिया कि कर्ज अदा करने की बारी अब अंग्रेजों की है न कि भारतीयों की। इसके बाद घुड़सवारी व हथियार चलाने में माहिर रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर देने की तैयारी आरंभ कर दी और उद्घोषणा की कि-‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।”

रानी लक्ष्मीबाई द्वारा गठित सैनिक दल में तमाम महिलायें शामिल थीं। उन्होंने महिलाओं की एक अलग ही टुकड़ी ‘दुर्गा दल’ नाम से बनायी थी। इसका नेतृत्व कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में था। झलकारीबाई ने कसम उठायी थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं श्रृंगार करूंगी और न ही सिन्दूर लगाऊँगी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारीबाई जोशो-खरोश के साथ लड़ी। चूँकि उसका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफी मिलता-जुलता था, सो जब उसने रानी लक्ष्मीबाई को घिरते देखा तो उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कहा और स्वयं घायल सिहंनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और शहीद हो गई। रानी लक्ष्मीबाई अपने बेटे को कमर में बाॅंध घोडे़ पर सवार किले से बाहर निकल गई और कालपी पहॅंुची, जहाॅं तात्या टोपे के साथ मिलकर ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया।....अन्ततः 18 जून 1858 को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की इस अद्भुत वीरांगना ने अन्तिम सांस ली पर अंग्रेजों को अपने पराक्रम का लोहा मनवा दिया। तभी तो उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा- ‘‘यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो व्रिदोहियों में एकमात्र मर्द थी।”

इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। वैसे भी इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शाश्वत होती है जो बीते हुये कल को उपलब्ध साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत प्रस्तुत करती है। बुंदेलखण्ड की वादियों में आज भी दूर-दूर तक लोक लय सुनाई देती है- ''खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी/पुरजन पुरजन तोपें लगा दई, गोला चलाए असमानी/ अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी/सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी/......छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।'' माना जाता है कि इसी से प्रेरित होकर ‘झाँसी की रानी’ नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चैहान ने 1857 की उनकी वीरता का बखान किया हैं- ''चमक उठी सन् सत्तावन में/वह तलवार पुरानी थी/बुन्देले हरबोलों के मुँह/हमने सुनी कहानी थी/खूब लड़ी मर्दानी वह तो/झाँसी वाली रानी थी।''

सोमवार, 15 नवंबर 2010

भारत की प्रथम महिला बैरिस्टर कार्नेलिया सोराबजी

15 नवम्बर की तिथि नारी-सशक्तीकरण की दिशा में काफी मायने रखती है। 15 नवम्बर 1866 को ही भारत की पहली महिला बैरिस्टर कार्नेलिया सोराबजी का जन्म हुआ था. नासिक में जन्मीं कार्नेलिया 1892 में नागरिक कानून की पढ़ाई के लिए विदेश गयीं और 1894 में भारत लौटीं. उस समय समाज में महिलाएं मुखर नहीं थीं और न ही महिलाओं को वकालत का अधिकार था. पर कार्नेलिया तो एक जुनून का नाम था. अपनी प्रतिभा की बदौलत उन्होंने महिलाओं को कानूनी परामर्श देना आरंभ किया और महिलाओं के लिए वकालत का पेशा खोलने की माँग उठाई. अंतत: 1907 के बाद कार्नेलिया को बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम की अदालतों में सहायक महिला वकील का पद दिया गया. एक लम्बी जद्दोजहद के बाद 1924 में महिलाओं को वकालत से रोकने वाले कानून को शिथिल कर उनके लिए भी यह पेशा खोल दिया गया....1929 में कार्नेलिया हाईकोर्ट की वरिष्ठ वकील के तौर पर सेवानिवृत्त हुयीं पर उसके बाद महिलाओं में इतनी जागृति आ चुकी थी कि वे वकालत को एक पेशे के तौर पर अपनाकर अपनी आवाज मुखर करने लगी थीं. यद्यपि 1954 में कार्नेलिया का देहावसान हो गया, पर आज भी उनका नाम वकालत जैसे जटिल और प्रतिष्ठित पेशे में महिलाओं की बुनियाद है. कार्नेलिया सोराबजी की जन्म-तिथि पर उन्हें शत-शत नमन !!

रविवार, 14 नवंबर 2010

नेहरु जी की सीख : बचपन के करीब, प्रकृति के करीब

पं0 नेहरू से मिलने एक व्यक्ति आये। बातचीत के दौरान उन्होंने पूछा-’’पंडित जी आप 70 साल के हो गये हैं लेकिन फिर भी हमेशा गुलाब की तरह तरोताजा दिखते हैं। जबकि मैं उम्र में आपसे छोटा होते हुए भी बूढ़ा दिखता हूँ।’’ इस पर हँसते हुए नेहरू जी ने कहा-’’इसके पीछे तीन कारण हैं।’’ उस व्यक्ति ने आश्चर्यमिश्रित उत्सुकता से पूछा, वह क्या ? नेहरू जी बोले-’’पहला कारण तो यह है कि मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूँ। उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूँ, जिससे मुझे लगता है कि मैं भी उनके जैसा हूँ। दूसरा कि मैं प्रकृति प्रेमी हूँ और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरना, चाँद, सितारे सभी से मेरा एक अटूट रिश्ता है। मैं इनके साथ जीता हूँ और ये मुझे तरोताजा रखते हैं।’’ नेहरू जी ने तीसरा कारण दुनियादारी और उसमें अपने नजरिये को बताया-’’दरअसल अधिकतर लोग सदैव छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसी के बारे में सोचकर अपना दिमाग खराब कर लेते हैं। पर इन सबसे मेरा नजरिया बिल्कुल अलग है और छोटी-छोटी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ता।’’ इसके बाद नेहरू जी खुलकर बच्चों की तरह हँस पड़े।

सोचिये , क्या हम भी इस ओर प्रेरित हो सकते हैं- बचपन के करीब, प्रकृति के करीब और छोटी-छोटी बातों में उलझने की बजाय थोडा व्यापक सोच !!

(यह पोस्ट शब्द-शिखर पर पूर्व प्रकाशित है, पर आज नेहरु जी के जन्म दिवस पर 'बाल-दिवस' के बहाने पुन: प्रस्तुत है...आप भी सोचें-विचारें !)

बुधवार, 10 नवंबर 2010

मेरे घर आई इक नन्हीं परी...

इक लम्बे समय बाद आप सभी से रु-ब-रु हूँ. सर्वप्रथम आप सभी को देर से दीपावली की ढेरों शुभकामनायें. इस बीच हमारे घर इक नए मेहमान का आगमन हुआ है. बिटिया अक्षिता (पाखी) और पापा दोनों खुश हैं. देखिये पाखी इस नए मेहमान के बारे में क्या बता रही हैं !!*********************************************************
मैं दीदी बन गई हूँ. मेरे घर में मेरी प्यारी सी बहना जो आ गई है. ये रही नन्हीं-मुन्नी प्यारी सी मेरी सिस्टर, जो अब मुझे दीदी कहकर बुलाएगी.इसका जन्म 27 अक्तूबर, 2010 की रात्रि 11: 10 पर बनारस के हेरिटेज हास्पिटल में हुआ. पहले हम लोग पोर्टब्लेयर से अपने ददिहाल आजमगढ़ गए और फिर ननिहाल सैदपुर (गाजीपुर). और पापा पहुँचे 24 अक्तूबर की रात में. तब तक तो ममा बनारस के हेरिटेज हास्पिटल में एडमिट हो चुकी थीं. साथ में नानी और मौसी भी थीं. ..और हाँ डाक्टर आंटी तो हम लोगों का खूब ख्याल रखती थीं. थीं. उनका नाम था मेजर (डा0) अंजली रानी. दीदी बनने के बाद तो मैं बहुत खुश हूँ. मुझे लगता है कि कोई प्यारा सा ट्वॉय मिल गया, जिसके साथ खूब खेलूँगी...मस्ती करुँगी. आज तो यह पूरे 15 दिन की हो गई. अभी तो सारा दिन कोशिश करती हूँ कि मेरा ट्वॉय मेरी गोद में रहे. अब बस इंतजार है कि कब हम लोग पोर्टब्लेयर पहुंचेंगे. यहाँ तो ठंडी आ चुकी है, वहाँ तो मौसम अभी बहुत प्यारा होगा...अले, मेरा ट्वॉय रो रहा है, मैं तो चली उसे चुप कराने...अब तो उसके बारे में आपको ढेर सारी बातें बताऊन्गी !!




शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

दीपोत्सव और लक्ष्मी-गणेश की पूजा परंपरा


दीपावली को दीपों का पर्व कहा जाता है और इस दिन ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी एवं विवेक के देवता व विध्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि दीपावली मूलतः यक्षों का उत्सव है। दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते। दीपावली पर रंग-बिरंगी आतिशबाजी, लजीज पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, वे यक्षों की ही देन हैं। सभ्यता के विकास के साथ यह त्यौहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मी जी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है। गणेश जी को दीपावली पूजा में मंचासीन करने में शैव-सम्प्रदाय का काफी योगदान है। ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने गणेश जी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन् ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं। अतः कालांतर में लक्ष्मी-गणेश का संबध लक्ष्मी-कुबेर की बजाय अधिक निकट प्रतीत होने लगा। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णु जी का इसी दिन विवाह सम्पन्न होना भी माना गया हैै।

ऐसा नहीं है कि दीपावली का सम्बन्ध सिर्फ हिन्दुओं से ही रहा है वरन् दीपावली के दिन ही भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के चलते जैन समाज दीपावली को निर्वाण दिवस के रूप में मनाता है तो सिक्खों के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर की स्थापना एवं गुरू हरगोविंद सिंह की रिहाई दीपावली के दिन होने के कारण इसका महत्व सिक्खों के लिए भी बढ़ जाता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस को आज ही के दिन माँ काली ने दर्शन दिए थे, अतः इस दिन बंगाली समाज में काली पूजा का विधान है। यह महत्वपूर्ण है कि दशहरा-दीपावली के दौरान पूर्वी भारत के क्षेत्रों में जहाँ देवी के रौद्र रूपों को पूजा जाता है, वहीं उत्तरी व दक्षिण भारत में देवी के सौम्य रूपों अर्थात लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा माँ की पूजा की जाती है।

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

अब करेंसी नोट भी प्लास्टिक के

कागज के नोट तो हम सभी ने देखे होंगे, पर प्लास्टिक के नोट मात्र खिलौनों के रूप में ही देखे होंगे। आने वाले दिनों में प्लास्टिक के नोट ही दिखेंगे। ये वास्तव में पाॅलीमर ;एक तरह की प्लास्टिकद्ध के बने होंगे एवं पर्यावरण के अनुकूल भी होंगे। जरूरत पड़ने पर इनकी रिसाइकलिंग भी की जा सकती है। जहाँ कागज के नोट गंदे होकर सड़ जाते हैं, वहीं इन्हें गंदा होने पर साबुन से साफ भी किया जा सकता है। अर्थात पाॅलीमर नोटों की उम्र कागज के नोटों की अपेक्षा अधिक होगी।

पाॅलीमर नोट का विश्व में सर्वप्रथम इस्तेमाल आस्ट्रेलिया द्वारा वर्ष 1992 में आरम्भ किया गया। यहाँ तक कि चीन, नेपाल, बांग्लादेश व श्रीलंका जैसे देशों में भी पाॅलीमर नोट प्रचलन में हैं। ऐसे में भारतीय रिजर्व बैंक भी भारत में पाॅलीमर नोट आरम्भ करने की सोच रहा है। आरंभ में प्रायोगिक तौर पर इन्हें दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई व बेंगलूर जैसे महानगरों में आरंभ किया जा सकता है और फिर धीरे-धीरे पूरे देश में इनका विस्तार किया जाएगा। शुरूआत दस रूपये के पाॅलीमर नोटों से की जाने की संभावना है और बाद में बड़ी करेंसी के पाॅलीमर नोट भी जारी किए जाएंगे ।

पाॅलीमर नोट से जहाँ करेंसी नोटों की आयु बढ़ेगी, वहीे इससे जाली नोटों पर भी अंकुश लगाया जा सकेगा। गौरतलब है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने वर्ष 1935 में 135 हजार करोड़ रूपये के सापेक्ष वर्ष 2008-09 में 7 लाख करोड़ रूपये के नोट छापे। ऐसे में रिजर्व बैंक को पाॅलीमर नोट की स्थिति में कम ही नोट छापने पड़ेंगे, क्योंकि इनके गंदे होकर नष्ट होने की संभावना काफी कम हो जाएगी।

भारत सरकार फिलहाल करेंसी नोट के कागजों का आयात करती है, जिनसे देश मंे ही कागज के नोटों का मुद्रण किया जाता है। मुख्य आपूर्तिकर्ता देश ब्रिटेन है। अब तक के इतिहास में मात्र एक बार वर्ष 1997-98 में भारतीय रिजर्व बैंक ने देश से बाहर करेंसी का मुद्रण कराया था। इनमें अमेरिका की अमेरिकन नोट कंपनी, ब्रिटेन की थामस डी ला रू और जर्मनी की जीसेक एंड डेवरिएंट कंसोर्टियम से क्रमशरू 100रू0, 100रू0 व 500रू0 के कुल एक लाख करोड़ रूपये की भारतीय करेंसी छपवाई गई थी। ऐसे मामलों में कई बार जोखिम भी हो सकता है। यदि किसी कंपनी ने दिए गए आर्डर से ज्यादा संख्या में करेंसी छापकर उनका दुरूपयोग करना आरंभ किया तो अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध होगा। इसी प्रकार करेंसी नोटों के कागजों का स्वदेश में उत्पादन की बजाय अन्य देशों पर आपूर्ति हेतु निर्भरता खतरे से खाली नहीं कहा जा सकता। फिलहाल करेंसी नोट के उत्पादन में प्रति वर्ष 18 हजार टन कागज का प्रयोग किया जाता है। भारत सरकार ने इस संबंध में देश में ही करेंसी नोटों के कागज के उत्पादन के लिए सार्थक पहल करते हुए मैसूर में 1500 करोड़ रूपये लागत से एक कारखाना प्रस्तावित किया है, जहाँ प्रति वर्ष 12 हजार टन करेंसी नोट के कागजों का उत्पादन होना संभावित है।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

कहाँ गईं वो तितलियाँ

आपको बचपन की तितलियाँ याद होंगीं. बिना तितलियों के बचपन क्या. यहाँ तक कि कोर्स में भी तितलियों की कविता पढने को मिलती थी. कभी ये तितलियाँ परी लगतीं तो कभी उनके साथ उड़ जाने का मन करता. पर अब तो जल्दी कोई तितली नहीं दिखती। तितली देखते ही बचपन में खुश होकर ताली बजाने और फिर उसके पीछे दौड़ने की यादें धीरे-धीरे धुंधली पड़ रही हैं. हम लोग बचपन में तितलियाँ पकड़ने के लिए घंटों बगीचे में दौड़ा करते थे। उनके रंग-बिरंगे पंखों को देखकर खूब खुश हुआ करते थे। पर अब तो लगता है कि फिजाओं में उड़ते ये रंग ठहर से गए हैं। अब रंगों से भरी तितलियाँ सिर्फ किस्से-कहानियों और किताबों तक सिमट गई हैं। जो तितली घर-घर के आसपास दिखती थी वह न जाने कहाँ विलुप्त होती गई और बड़े होने के साथ ही हम लोगों ने भी इस ओर गौर नहीं किया।

वस्तुतः तितलियों के कम होने के पीछे दिन पर दिन कम होते पेड़-पौधे काफी हद तक जिम्मेदार हैं। यही नहीं, घरों के बगीचों में फूलों पर कीटनाशक का प्रयोग तितलियों के लिए बहुत घातक साबित हो रहा है। तितलियों का फिजा से गायब होना बड़ा शोचनीय है। यह बिगड़ते पर्यावरण की तस्वीर है। ऐसा माना जाता है कि जहाँ तितलियाँ दिखती हैं वहाँ का पर्यावरण संतुलित होता है। अगर बात तितलियों के विभिन्न स्वरूपों की तो डफर बैंडेड, डफर टाइगर, क्रो स्पाटेड, डार्की क्रिमलेट, एंगल डार्किन, लीज ब्लू, ओक ब्लू, ब्लू फूजी, टिट आरकिड, क्यूपिट मूर, सफायर, बटरलाई मूथ, रायल चेस्टनेट, पीकाक हेयर स्ट्रीक, राजा चेस्टनट, इम्परर गोल्डन और मोनार्क जैसी तितलियाँ पर्यावरण को संतुलित रखने में खासा योगदान देती हैं। पर ये सभी धीरे-धीरे खत्म होती जा रही हैं।

ऐसे में आज के बच्चों से पूछिए तो उन्हें तितलियों के रंग किताबों में या फिर किसी श्रृंगार रस की कविता में ही दिखाई देते हैं। न उन्हें तितलियाँ दिखाई देती हैं न उन्हें पकड़ने के लिए वे लालायित रहते हैं। क्रिकेट, मूवी, कंप्यूटर गेम और इंटरनेट ही उनकी रंगीन दुनिया है। आखिर बच्चे भी क्या करें, शहर में कम होते पेड़ --पौधों की वजह से तितलियों को अपना भोजन नहीं मिल पा रहा। घरों में जो लोग बागवानी करते हैं वो अपने पौधों को कीटों से बचाने के लिए उसके ऊपर कीटनाशक स्प्रे कर देते हैं। इससे फूल जहरीला बन जाता है और जब तितली पेस्टीसाइड ग्रस्त इस फूल का परागण करती है तो मर जाती है। आखिर इन सबके बीच तितलियाँ कहाँ से आयेंगीं !!

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

अन्याय पर न्याय की विजय का प्रतीक है दशहरा

दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप मंे राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं- क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री रूप में मांँ दुर्गा की लगातार नौ दिनांे तक पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और मांँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती हेै।

दशहरे की परम्परा भगवान राम द्वारा त्रेतायुग में रावण के वध से भले ही आरम्भ हुई हो, पर द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध भी इसी दिन आरम्भ हुआ था। पर विजयदशमी सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी बल्कि यह बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़ने का दिन होता है।

कृष्ण कुमार यादव

आप सभी को विजयदशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !!

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

तुलसीदास ने सर्वप्रथम आरंभ की रामलीला

(नवरात्र आरंभ हो चुका है. देवी-माँ की मूर्तियाँ सजने लगी हैं. चारों तरफ भक्ति-भाव का बोलबाला है. दशहरे की उमंग अभी से दिखाई देने लगी है. इस पर क्रमश: प्रस्तुत है कृष्ण कुमार यादव जी के लेखों की सीरिज. आशा है आपको पसंद आयेगी-)

भारतीय संस्कृति में कोई भी उत्सव व्यक्तिगत नहीं वरन् सामाजिक होता है। यही कारण है कि उत्सवों को मनोरंजनपूर्ण व शिक्षाप्रद बनाने हेतु एवं सामाजिक सहयोग कायम करने हेतु इनके साथ संगीत, नृत्य, नाटक व अन्य लीलाओं का भी मंचन किया जाता है। यहाँ तक कि भरतमुनि ने भी नाट्यशास्त्र में लिखा है कि- "देवता चंदन, फूल, अक्षत, इत्यादि से उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना कि संगीत नृत्य और नाटक से होते हैं।''

सर्वप्रथम राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम के जीवन व शिक्षाओं को जन-जन तक पहुँचाने के निमित्त बनारस में हर साल रामलीला खेलने की परिपाटी आरम्भ की। एक लम्बे समय तक बनारस के रामनगर की रामलीला जग-प्रसिद्ध रही, कालांतर में उत्तर भारत के अन्य शहरों में भी इसका प्रचलन तेजी से बढ़ा और आज तो रामलीला के बिना दशहरा ही अधूरा माना जाता है। यहाँ तक कि विदेशों मे बसे भारतीयों ने भी वहाँ पर रामलीला अभिनय को प्रोत्साहन दिया और कालांतर में वहाँ के स्थानीय देवताओं से भगवान राम का साम्यकरण करके इंडोनेशिया, कम्बोडिया, लाओस इत्यादि देशों में भी रामलीला का भव्य मंचन होने लगा, जो कि संस्कृति की तारतम्यता को दर्शाता है।
(क्रमश :, आगामी- अन्याय पर न्याय की विजय का प्रतीक है दशहरा)

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

दशहरे पर रावण की पूजा

(नवरात्र आरंभ हो चुका है. देवी-माँ की मूर्तियाँ सजने लगी हैं. चारों तरफ भक्ति-भाव का बोलबाला है. दशहरे की उमंग अभी से दिखाई देने लगी है. इस पर क्रमश: प्रस्तुत है कृष्ण कुमार यादव जी के लेखों की सीरिज. आशा है आपको पसंद आयेगी-)

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। सामान्यतः त्यौहारों का सम्बन्ध किसी न किसी मिथक, धार्मिक मान्यताओं, परम्पराओं और ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा होता है। दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन 'दश' व 'हरा' से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे की परम्परा भगवान राम द्वारा त्रेतायुग में रावण के वध से भले ही आरम्भ हुई हो, पर द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध भी इसी दिन आरम्भ हुआ था। पर विजयदशमी सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी बल्कि यह बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़ने का दिन होता है। रावण में कुछ अवगुण जरुर थे, लेकिन उसमें कई गुण भी मौजूद थे, जिन्हे कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में उतार सकता है। यदि रामायण या राम के जीवन से रावण के चरित्र को निकाल दिया जाएए तो संपूर्ण रामकथा का अर्थ ही बदल जाएगा। स्वयं राम ने रावण के बुद्धि और बल की प्रशंसा की है। रावण-वध के बाद भगवान राम ने अनुज लक्ष्मण को रावण के पास शिक्षा लेने के लिए भेजा था। पहले तो लक्ष्मण रावण के सिर के पास बैठे, पर जब रावण ने इस स्थित में उन्हें शिक्षा देने से इन्कार कर दिया, तो लक्ष्मण ने एक शिष्य की तरह रावण के चरणों के पास बैठकर शिक्षा ली।

रावण दैत्यराज सुमाली की पुत्री कैकशी एवं विद्वान ब्राहमण विश्रव का पुत्र था। दैत्यराज सुमाली अपनी बेटी कैकशी का विवाह एक ऐसे व्यक्ति से करना चाहते थे जो उन्हें एक योग्य एवं अति बलवान उत्तराधिकारी दे सके। जब दैत्यराज की इस इच्छा पर कोई भी खरा नहीं उतरा तो कैकशी ने स्वयं विद्वान ब्राहमण विश्रव का चयन किया। विवाह के वक्त ही विश्रव ने कैकशी से कहा था कि चूँकि तुमने मेरा चुनाव गलत क्षण में किया है, अतः तुम्हारा पुत्र बुराई के मार्ग पर जायेगा। रावण के जन्म के समय उसके पिता विश्रव को जब यह ज्ञात हुआ कि उनके बेटे में दस लोगों के बराबर बौद्धिक बल है, तो उन्होंने उसका नाम ‘दशानन‘ रख दिया। रावण के दशानन होने के संबंध में एक अन्य किंवदन्ती है कि उसके विद्धान-ब्राहमण पिता विश्रव ने उसे एक बेशकीमती रत्नों का हार पहनाया था, जिसकी खासियत यह थी कि उससे निकलने वाले प्रकाश से लोगों को रावण के दस सिर और बीस हाथ होने का आभास होता था। अपने माता-पिता के चलते रावण में दैत्य और ब्राहमण दोनों के गुण थे। रावण को न केवल शास्त्रों बल्कि 64 कलाओं में महारत हासिल थी। यहाँ तक कि उसे हाथी और गाय को भी प्रशिक्षित करने की कला का ज्ञान था।

यदि हम अलग.अलग स्थान पर प्रचलित राम कथाओं को जानें, तो रावण को बुरा व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है। जैन धर्म के कुछ ग्रंथों में रावण को प्रतिनारायण' कहा गया है। रावण समाज सुधारक और प्रकांड पंडित था। तमिल रामायणकार 'कंब' ने उसे सद्चरित्र कहा है। रावण ने सीता के शरीर का स्पर्श तक नहीं कियाए बल्कि उनका अपहरण करते हुए वह उस भूखंड को ही उखाड़ लाता है, जिस पर सीता खड़ी हैं । गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है कि रावण जब सीता का अपहरण करने आयाए तो वह पहले उनकी वंदना करता है। 'मन मांहि चरण बंदि सुख माना।' महर्षि याज्ञवल्क्य ने इस वंदना को विस्तारपूर्वक बताया है। 'मां' तू केवल राम की पत्नी नहींए बल्कि जगत जननी है। राम और रावण दोनों तेरी संतान के समान हैं। माता योग्य संतानों की चिंता नहीं करतीए बल्कि वह अयोग्य संतानों की चिंता करती है। राम योग्य पुरुष हैंए जबकि मैं सर्वथा अयोग्य हूंए इसलिए मेरा उद्धार करो मां। यह तभी संभव हैए जब तू मेरे साथ चलेगी और ममतामयी सीता उसके साथ चल पड़ी।

ज्योतिष और आयुर्वेद का ज्ञाता लंकापति रावण तंत्र।मंत्रए सिद्धि और दूसरी कई गूढ़ विद्याओं का भी ज्ञाता था। ज्योतिष विद्या के अलावाए उसे रसायन शास्त्र का भी ज्ञान प्राप्त था। उसे कई अचूक शक्तियां हासिल थींए जिनके बल पर उसने अनेक चमत्कारिक कार्य संपन्न किए। श्रावण संहिताश् में उसके दुर्लभ ज्ञान के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। वह राक्षस कुल का होते हुए भी भगवान शंकर का उपासक था। उसने लंका में छह करोड़ से भी अधिक शिवलिंगों की स्थापना करवाई थी। यही नहींए रावण एक महान कवि भी था। उसने श्शिव ताण्डव स्त्रोत्मश् की। उसने इसकी स्तुति कर शिव भगवान को प्रसन्न भी किया। रावण वेदों का भी ज्ञाता था। उनकी ऋचाओं पर अनुसंधान कर विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलता अर्जित की। वह आयुर्वेद के बारे में भी जानकारी रखता था। वह कई जड़ी.बूटियों का प्रयोग औषधि के रूप में करता था।

रावण भगवान शिव का भक्त होने के साथ-साथ महापराक्रमी भी था। इसी तथ्य के मद्देनजर आज भी कानपुर के शिवाला स्थित कैलाश मंदिर में विजयदशमी के दिन दशानन रावण की महाआरती की जाती है। सन् 1865 में श्रृंगेरी के शंकराचार्य की मौजूदगी में महाराज गुरू प्रसाद द्वारा स्थापित इस मंदिर में शिव के साथ उनके प्रमुख भक्तों की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। कालांतर में सन् 1900 मंे महाराज शिवशंकर लाल ने कैलाश मंदिर परिसर में शिवभक्त रावण का मंदिर बनवाया और देवी के तेइस रूपों की मूर्ति भी स्थापित की। वस्तुतः इसके पीछे यह तर्क था कि भक्त के बगैर ईश्वर अधूरे हैं, इसीलिए भगवान शंकर के मंदिर के बाहर उनके अनन्य भक्त रावण का भी मंदिर बनाया गया। तभी से रावण की महाआरती की परम्परा यहाँ पर कायम है। कानपुर से सटे उन्नाव जिले के मौरावां कस्बे में भी राजा चन्दन लाल द्वारा सन् 1804 में स्थापित रावण की मूर्ति की पूजा की जाती है। यहाँ दशहरे के दिन रामलीला मैदान में 7-8 फुट ऊँचे सिंहासन पर बैठे रावण की विशालकाय पत्थर की मूर्ति की लोग पूजा करते हैं, जबकि एक अन्य पुतला बनाकर रावण दहन करते हैं।

मध्य प्रदेश के मंदसौर में नामदेव वैश्य समाज के लोगों के अनुसार रावण की पत्नी मंदोदरी मंदसौर की थी। अतः रावण को जमाई मानकर उसकी खतिरदारी यहाँ पर भव्य रूप में की जाती है। यहाँ पर रावण के समक्ष मनौती मानने और पूरी होने के बाद रावण की वंदना करने व भोग लगाने की परंपरा रही है। हाल ही में यहाँ रावण की पैतीस फुट उंची बैठी हुई अवस्था में कंक्रीट मूर्ति स्थापित की गई है। इसी प्रकार जोधपुर के लोगों के अनुसार रावण की पत्नी मंदोदरी यहाँ की पूर्व राजधानी मंडोर की रहने वाली थीं व रावण व मंदोदरी के विवाह स्थल पर आज भी रावण की चवरी नामक एक छतरी मौजूद है। हाल ही में अक्षय ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र ने जोधपुर के चांदपोल क्षेत्र में स्थित महादेव अमरनाथ एवं नवग्रह मंदिर परिसर में रावण का मंदिर बनाने की घोषणा की है। इसमें रावण की मूर्ति शिवलिंग पर जल चढ़ाते हुए बनायी जा रही है, जिससे रावण की शिवभक्ति प्रकट होगी और उसका सम्मानीय स्वरूप सामने आयेगा।

मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में स्थित रावणगाँव में रावण को महात्मा या बाबा के रूप में पूजा जाता है। यहाँ रावण बाबा की करीब आठ फीट लंबी पाषाण प्रतिमा लेटी हुयी मुद्रा में है और प्रति वर्ष दशहरे पर इसका विधिवत श्रृंगार करके अक्षत, रोली, हल्दी व फूलों से पूजा करने की परंपरा है। चूंकि रावण की जान उसकी नाभि में बसती थी, अतः यहाँ पर रावण की नाभि पर तेल लगाने की परंपरा है अन्यथा पूजा अधूरी मानी जाती है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ग्रेटर नोएडा के मध्य स्थित बिसरख गाँव को रावण का पैतृक गाँव माना जाता है। बताते हैं कि रावण के पिता विश्रवामुनि इस गाँव के जंगल में शिव भक्ति करते थे एवं रावण सहित उनके तीनों बेटे यहीं पर पैदा हुए। विजय दशमी के दिन जब चारो तरफ रावण का पुतला फूका जाता है, तो बिसरख गाँव के लोग उस दिन शोक मनाते हैं। इस गाँव में दशहरा का त्यौहार नहीं मनाया जाता है। गाँववासियों को मलाल है कि रावण को पापी रूप में प्रचारित किया जाता है जबकि वह बहुत तेजस्वी, बुद्विमान, शिवभक्त, प्रकाण्ड पण्डित एवं क्षत्रिय गुणों से युक्त था। महाराष्ट्र के अमरावती और गढ़चिरौली जिले में 'कोरकू' और 'गोंड' आदिवासी रावण और उसके पुत्र मेघनाद को अपना देवता मानते हैं। अपने एक खास पर्व 'फागुन' के अवसर पर वे इसकी विशेष पूजा करते हैं।

उत्तर भारत में दशहरा का मतलब भले ही रावण दहन से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ हो, पर भारत के अन्य हिस्सों में ही इसे अन्य रूप में मनाया जाता है। बंगाल में दशहरे का मतलब रावण दहन नहीं बल्कि दुर्गा पूजा होती है, जिसमें माँ दुर्गा को महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है।
(क्रमश :, आगामी- तुलसीदास ने सर्वप्रथम आरंभ की रामलीला)

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

दशहरा और शस्त्र -पूजा

(नवरात्र आरंभ हो चुका है. देवी-माँ की मूर्तियाँ सजने लगी हैं. चारों तरफ भक्ति-भाव का बोलबाला है. दशहरे की उमंग अभी से दिखाई देने लगी है. इस पर क्रमश: प्रस्तुत है कृष्ण कुमार यादव जी के लेखों की सीरिज. आशा है आपको पसंद आयेगी-)


दशहरे के दिन भारत में कुछ क्षेत्रों में शमी वृक्ष की पूजा का भी प्रचलन है। ऐसी मान्यता है कि अर्जुन ने अज्ञातवास के दौरान राजा विराट की गायों को कौरवों से छुड़ाने हेतु शमी वृक्ष की कोटर में छिपाकर रखे अपने गाण्डीव-धनुष को फिर से धारण किया। इस अवसर पर पाण्डवों ने गाण्डीव-धनुष की रक्षा हेतु शमी वृक्ष की पूजा कर कृतज्ञता व्यक्त की। तभी से दशहरे के दिन शस्त्र पूजा के साथ ही शमी वृक्ष की भी पूजा होने लगी। पौराणिक कथाओं में भी शमी वृक्ष के महत्व का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार राजा रघु के पास जब एक साधु दान लेने आया तो राजा को अपना खजाना खाली मिला। इससे क्र्रोधित हो राजा रघु ने इन्द्र पर चढ़ाई की तैयारी कर दी। इन्द्र ने रघु के डर से अपने बचाव हेतु शमी वृक्ष के पत्तों को सोने का कर दिया। तभी से यह परम्परा आरम्भ हुयी कि क्षत्रिय इस दिन शमी वृक्ष पर तीर चलाते हैं एवं उससे गिरे पत्तों को अपनी पगड़ी में धारण करते हैं।

आज भी विजयदशमी पर महाराष्ट्र और राजस्थान में शस्त्र पूजा बड़े उल्लास से की जाती है। इसे महाराष्ट्र मंे ‘सीलांगण’ अर्थात सीमा का उल्लघंन और राजस्थान में "अहेरिया" अर्थात शिकार करना कहा जाता है। राजा विक्रमादित्य ने दशहरे के दिन ही देवी हरसिद्धि की आराधना की थी तो छत्रपति शिवाजी को इसी दिन मराठों की कुलदेवी तुलजा भवानी ने औरगंजेब के शासन को खत्म करने हेतु रत्नजड़ित मूठ वाली तलवार "भवानी" दी थी, ऐसी मान्यता रही है। तभी से मराठा किसी भी आक्रमण की शुरूआत दशहरे से ही करते थे और इसी दिन एक विशेष दरबार लगाकर बहादुर मराठा योद्धाओं को जागीर एवं पदवी प्रदान की जाती थी। सीलांगन प्रथा का पालन करते हुए मराठे सर्वप्रथम नगर के पास स्थित छावनी में शमी वृक्ष की पूजा करते व तत्पश्चात पूर्व निर्धारित खेत में जाकर पेशवा मक्का तोड़ते एवं तत्पश्चात सभी उपस्थित लोग मिलकर उस खेत को लूट लेते थे।

राजस्थान के राजपूत भी "अहेरिया" की परम्परा में सर्वप्रथम शमी वृक्ष व शस्त्रों की पूजा करते व तत्पश्चात देवी दुर्गा की मूर्ति को पालकी में रख दूसरे राज्य की सीमा में प्रवेश कर प्रतीकात्मक युद्ध करते। इतिहास इस परंपरा में "अहेरिया" के चलते दो युद्धों का गवाह भी बना- प्रथमतः, 1434 में बूंदी व चितौड़गढ़ के बीच इस परम्परा ने वास्तविक युद्ध का रूप धारण कर लिया व इसमें राणा कुम्भा की मौत हो गई। द्वितीयतः, महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने राजगद्दी पर आसीन होने के बाद पहली विजयदशमी पर उत्ताला दुर्ग में ठहरे मुगल फौजियों का असली अहेरिया (वास्तविक शिकार) करने का संकल्प लिया। इस युद्ध में कई राजपूत सरदार हताहत हुए। आज भी सेना के जवानों द्वारा शस्त्र-पूजा की परम्परा कायम है।
(क्रमश :, आगामी- दशहरे पर रावण की पूजा )

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

जगप्रसिद्ध है बंगाल की दुर्गा पूजा

(नवरात्र आरंभ हो चुका है. देवी-माँ की मूर्तियाँ सजने लगी हैं. चारों तरफ भक्ति-भाव का बोलबाला है. दशहरे की उमंग अभी से दिखाई देने लगी है. इस पर क्रमश: प्रस्तुत है कृष्ण कुमार यादव जी के लेखों की सीरिज.आशा है आपको पसंद आयेगी-)

नवरात्र और दशहरे की बात हो और बंगाल की दुर्गा-पूजा की चर्चा न हो तो अधूरा ही लगता है। वस्तुतः दुर्गापूजा के बिना एक बंगाली के लिए जीवन की कल्पना भी व्यर्थ है। बंगाल में दशहरे का मतलब रावण दहन नहीं बल्कि दुर्गा पूजा होती है, जिसमें माँ दुर्गा को महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है। मान्यताओं के अनुसार नौवीं सदी में बंगाल में जन्मे बालक व दीपक नामक स्मृतिकारों ने शक्ति उपासना की इस परिपाटी की शुरूआत की। तत्पश्चात दशप्रहारधारिणी के रूप में शक्ति उपासना के शास्त्रीय पृष्ठाधार को रघुनंदन भट्टाचार्य नामक विद्वान ने संपुष्ट किया। बंगाल में प्रथम सार्वजनिक दुर्गा पूजा कुल्लक भट्ट नामक धर्मगुरू के निर्देशन में ताहिरपुर के एक जमींदार नारायण ने की पर यह समारोह पूर्णतया पारिवारिक था। बंगाल के पाल और सेनवशियों ने दूर्गा-पूजा को काफी बढ़ावा दिया। प्लासी के युद्ध (1757) में विजय पश्चात लार्ड क्लाइव ने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु अपने हिमायती राजा नव कृष्णदेव की सलाह पर कलकत्ते के शोभा बाजार की विशाल पुरातन बाड़ी में भव्य स्तर पर दुर्गा-पूजा की। इसमें कृष्णानगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों द्वारा निर्मित भव्य मूर्तियाँ बनावाई गईं एवं वर्मा और श्रीलंका से नृत्यांगनाएं बुलवाई गईं। लार्ड क्लाइव ने हाथी पर बैठकर इस समारोह का आनंद लिया। राजा नवकृष्ण देव द्वारा की गई दुर्गा-पूजा की भव्यता से लोग काफी प्रभावित हुए व अन्य राजाओं, सामंतों व जमींदारांे ने भी इसी शैली में पूजा आरम्भ की। सन् 1790 मंे प्रथम बार राजाओं, सामंतो व जमींदारांे से परे सामान्य जन रूप में बारह ब्राह्मणांे ने नदिया जनपद के गुप्ती पाढ़ा नामक स्थान पर सामूहिक रूप से दुर्गा-पूजा का आयोजन किया, तब से यह धीरे-धीरे सामान्य जनजीवन में भी लोकप्रिय होता गया।

बंगाल के साथ-साथ बनारस की दुर्गा पूजा भी जग प्रसिद्ध है। इसका उद्भव प्लासी के युद्ध (1757) पश्चात बंगाल छोड़कर बनारस में बसे पुलिस अधिकारी गोविंदराम मित्र (डी0एस0 पी0) के पौत्र आनंद मोहन ने 1773 में बनारस के बंगाल ड्यौड़ी मंे किया। प्रारम्भ में यह पूजा पारिवारिक थी पर बाद मे इसने जन-समान्य में व्यापक स्थान पा लिया। आज दुर्गा पूजा दुनिया के कई हिस्सों में आयोजित की जाती है। लंदन में प्रथम दुर्गा पूजा उत्सव 1963 में मना, जो अब एक बड़े समारोह में तब्दील हो चुका है।


(क्रमश :, आगामी- दशहरा और शस्त्र -पूजा)


मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

दशहरा के विविध रूप


(नवरात्र आरंभ हो चुका है. देवी-माँ की मूर्तियाँ सजने लगी हैं. चारों तरफ भक्ति-भाव का बोलबाला है. दशहरे की उमंग अभी से दिखाई देने लगी है. इस पर क्रमश: प्रस्तुत है कृष्ण कुमार यादव जी के लेखों की सीरिज. आशा है आपको पसंद आयेगी-)

भारत विविधताओं का देश है, अतः उत्सवों और त्यौहारों को मनाने में भी इस विविधता के दर्शन होते हैं। हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा काफी लोकप्रिय है। एक हफ्ते तक चलने वाले इस पर्व पर आसपास के बने पहाड़ी मंदिरों से भगवान रघुनाथ जी की मूर्तियाँ एक जुलूस के रूप में लाकर कुल्लू के मैदान में रखी जाती हैं और श्रद्धालु नृत्य-संगीत के द्वारा अपना उल्लास प्रकट करते हैं। मैसूर (कर्नाटक) का दशहरा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित है। वाड्यार राजाओं के काल में आरंभ इस दशहरे को अभी भी शाही अंदाज में मनाया जाता है और लगातार दस दिन तक चलने वाले इस उत्सव में राजाओं का स्वर्ण-सिंहासन प्रदर्शित किया जाता है। सुसज्जित तेरह हाथियों का शाही काफिला इस दशहरे की शान है। आंध्र प्रदेश के तिरूपति (बालाजी मंदिर) में शारदीय नवरात्र को ब्रह्मेत्सवम् के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन नौ दिनों के दौरान सात पर्वतों के राजा पृथक-पृथक बारह वाहनों की सवारी करते हैं तथा हर दिन एक नया अवतार लेते हैं। इस दृश्य के मंचन और साथ ही ष्चक्रस्नानष् (भगवान के सुदर्शन चक्र की पुष्करणी में डुबकी) के साथ आंध्र में दशहरा सम्पन्न होता है।

केरल में दशहरे की धूम दुर्गा अष्टमी से पूजा वैपू के साथ आरंभ होती है। इसमें कमरे के मध्य में सरस्वती माँ की प्रतिमा सुसज्जित कर आसपास पवित्र पुस्तकें रखी जाती हैं और कमरे को अस्त्रों से सजाया जाता है। उत्सव का अंत विजयदशमी के दिन ष्पूजा इदप्पुष् के साथ होता है। महाराज स्वाथिथिरूनाल द्वारा आरंभ शास्त्रीय संगीत गायन की परंपरा यहाँ आज भी जीवित है। तमिलनाडु में मुरगन मंदिर में होने वाली नवरात्र की गतिविधयाँ प्रसिद्ध हंै।

गुजरात मंे दशहरा के दौरान गरबा व डांडिया-रास की झूम रहती है। मिट्टी के घडे़ में दीयों की रोशनी से प्रज्वलित ष्गरबोष् के इर्द-गिर्द गरबा करती महिलायें इस नृत्य के माध्यम से देवी का आह्मन करती हैं। गरबा के बाद डांडिया-रास का खेल खेला जाता है। ऐसी मान्यता है कि माँ दुर्गा व राक्षस महिषासुर के मध्य हुए युद्ध में माँ ने डांडिया की डंडियों के जरिए महिषासुर का सामना किया था। डांडिया-रास के माध्यम से इस युद्ध को प्रतीकात्मक रूप मे दर्शाया जाता है। महाराष्ट्र में दशहरे के दौरान नौ दिन तक माँ दुर्गा की पूजा होती है और दसवे दिन माँ सरस्वती की पूजा होती है। कश्मीर में नौ दिनों तक उपवास के बीच लोग प्रतिदिन झील के मध्य अवस्थित माता खीर भवानी मन्दिर के दर्शन के लिए जाते हैं.

(क्रमश : आगामी- जगप्रसिद्ध है बंगाल की दुर्गा पूजा )

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

भ्रूण हत्या बनाम नौ कन्याओं को भोजन ??

नवरात्र मातृ-शक्ति का प्रतीक है। एक तरफ इससे जुड़ी तमाम धार्मिक मान्यतायें हैं, वहीं अष्टमी के दिन नौ कन्याओं को भोजन कराकर इसे व्यवहारिक रूप भी दिया जाता है। लोग नौ कन्याओं को ढूढ़ने के लिए गलियों की खाक छान मारते हैं, पर यह कोई नहीं सोचता कि अन्य दिनों में लड़कियों के प्रति समाज का क्या व्यवहार होता है। आश्चर्य होता है कि यह वही समाज है जहाँ भ्रूण-हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार जैसे मामले रोज सुनने को मिलते है पर नवरात्र की बेला पर लोग नौ कन्याओं का पेट भरकर, उनके चरण स्पर्श कर अपनी इतिश्री कर लेना चाहते हैं। आखिर यह दोहरापन क्यों? इसे समाज की संवेदनहीनता माना जाय या कुछ और? आज बेटियां धरा से आसमां तक परचम फहरा रही हैं, पर उनके जन्म के नाम पर ही समाज में लोग नाकभौं सिकोड़ने लगते हैं। यही नहीं लोग यह संवेदना भी जताने लगते हैं कि अगली बार बेटा ही होगा। इनमें महिलाएं भी शामिल होती हैं। वे स्वयं भूल जाती हैं कि वे स्वयं एक महिला हैं। आखिर यह दोहरापन किसके लिए ??

समाज बदल रहा है। अभी तक बेटियों द्वारा पिता की चिता को मुखाग्नि देने के वाकये सुनाई देते थे, हाल ही में पत्नी द्वारा पति की चिता को मुखाग्नि देने और बेटी द्वारा पितृ पक्ष में श्राद्ध कर पिता का पिण्डदान करने जैसे मामले भी प्रकाश में आये हैं। फिर पुरूषों को यह चिन्ता क्यों है कि उनकी मौत के बाद मुखाग्नि कौन देगा। अब तो ऐसा कोई बिन्दु बचता भी नहीं, जहां महिलाएं पुरूषों से पीछे हैं। फिर भी समाज उनकी शक्ति को क्यों नहीं पहचानता? समाज इस शक्ति की आराधना तो करता है पर वास्तविक जीवन में उसे वह दर्जा नहीं देना चाहता। ऐसे में नवरात्र पर नौ कन्याओं को भोजन मात्र कराकर क्या सभी के कर्तव्यों की इतिश्री हो गई ....???

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

एक क्रान्तिकारी महिला: दुर्गा भाभी (जयंती पर विशेष)

वर्ष 1927 का दौर। साइमन कमीशन का विरोध करने पर लाहौर में प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले शेरे-पंजाब लाला लाजपत राय पर पुलिस ने निर्ममतापूर्वक लाठी चार्ज किया, जिससे 17 नवम्बर 1928 को उनकी मौत हो गयी। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में यह एक गम्भीर क्षति थी। पूरे देश विशेषकर नौजवानों की पीढ़ी को इस घटना ने झकझोर कर रख दिया। लाला लाजपत राय की मौत को क्रान्तिकारियों ने राष्ट्रीय अपमान के रूप में लिया और उनके मासिक श्राद्ध पर लाठी चार्ज करने वाले लाहौर के सहायक पुलिस कप्तान साण्डर्स को 17 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह, चन्द्रशेखर व राजगुरु ने खत्म कर दिया। यह घटना अंगे्रजी सरकार को सीधी चुनौती थी, सो पुलिस ने क्रान्तिकारियों पर अपना घेरा बढ़ाना आरम्भ कर दिया। ऐसे में भगत सिंह व राजगुरु को लाहौर से सुरक्षित बाहर निकालना क्रान्तिकारियों के लिये टेढ़ी खीर थी। ऐसे समय में एक क्रान्तिकारी महिला ने सुखदेव की सलाह पर भगतसिंह और राजगुरु को लाहौर से कलकत्ता बाहर निकालने की योजना बनायी और फलस्वरूप एक सुनियोजित रणनीति के तहत यूरोपीय अधिकारी के वेश में भगत सिंह पति, वह क्रान्तिकारी महिला अपने बच्चे को लेकर उनकी पत्नी और राजगुरु नौकर बनकर अंग्रेजी सरकार की आँखों में धूल झोंकते वहाँ से निकल लिये। यह क्रान्तिकारी महिला कोई और नहीं बल्कि चन्द्रशेखर आजाद के अनुरोध पर ‘दि फिलाॅसाफी आॅफ बम’ दस्तावेज तैयार करने वाले क्रान्तिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी दुर्गा देवी वोहरा थीं, जो क्रान्तिकारियों में ‘दुर्गा भाभी’ के नाम से प्रसिद्ध थीं।

7 अक्टूबर 1907 को रिटायर्ड जज पं0 बाँके बिहारी लाल नागर की सुपुत्री रूप में इलाहाबाद में दुर्गा देवी का जन्म हुआ। कुछ समय पश्चात ही पिताजी सन्यासी हो गये और बचपन में ही माँ भी गुजर गयीं। दुर्गा देवी का लालन-पालन उनकी चाची ने किया। जब दुर्गादेवी कक्षा 5वीं की छात्रा थीं तो मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह भगवतीचरण वोहरा से हो गया, जो कि लाहौर के पंडित शिवचरण लाल वोहरा के पुत्र थे। दुर्गा देवी के पति भगवतीचरण वोहरा 1921 के असहयोग आन्दोलन में काफी सक्रिय रहे और लगभग एक ही साथ भगतसिंह, धनवन्तरी और भगवतीचरण ने पढ़ाई बीच में ही छोड़कर देश सेवा में जुट जाने का संकलप लिया। असहयोग आन्दोलन के दिनों में गाँधी जी से प्रभावित होकर दुर्गा देवी और उनके पति स्वयं खादी के कपड़े पहनते और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करते। असहयोग आन्दोलन जब अपने चरम पर था, ऐसे में चैरी-चैरा काण्ड के बाद अकस्मात इसको वापस ले लिया जाना नौजवान क्रान्तिकारियों को उचित न लगा और वे स्वयं का संगठन बनाने की ओर प्रेरित हुये। असहयोग आन्दोलन के बाद भगवतीचरण वोहरा ने लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित नेशनल काॅलेज से 1923 में बी0ए0 की परीक्षा उतीर्ण की। दुर्गा देवी ने इसी दौरान प्रभाकर की परीक्षा उतीर्ण की।

1924 में तमाम क्रान्तिकारी ‘कानपुर सम्मेलन’ के बहाने इकट्ठा हुये और भावी क्रान्तिकारी गतिविधियों की योजना बनायी। इसी के फलस्वरूप 1928 में ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ का गठन किया गया, जो कि बाद में ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन’ में परिवर्तित हो गया। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, भगवतीचरण वोहरा, बटुकेश्वर दत्त, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खान, शचीन्द्र नाथ सान्याल इत्यादि जैसे तमाम क्रान्तिकारियों ने इस दौरान अपनी जान हथेली पर रखकर अंग्रेजी सरकार को कड़ी चुनौती दी। भगवतीचरण वोहरा के लगातार क्रान्तिकारी गतिविधयों में सक्रिय होने के साथ-साथ दुर्गा देवी भी पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रहीं। 3 दिसम्बर 1925 को अपने प्रथम व एकमात्र पुत्र के जन्म पर दुर्गा देवी ने उसका नाम प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के नाम पर शचीन्द्रनाथ वोहरा रखा।

वक्त के साथ दुर्गा देवी क्रान्तिकारियों की लगभग हर गुप्त बैठक का हिस्सा बनती गयीं। इसी दौरान वे तमाम क्रातिकारियों के सम्पर्क र्में आइं। कभी-कभी जब नौजवान क्रान्तिकारी किसी समस्या का हल नहीं ढूँढ़ पाते थे तो शान्तचित्त होकर उन्हें सुनने वाली दुर्गा देवी कोई नया आईडिया बताती थीं। यही कारण था कि वे क्रान्तिकारियों में बहुत लोकप्रिय और ‘दुर्गा भाभी’ के नाम से प्रसिद्ध थीं। महिला होने के चलते पुलिस उन पर जल्दी शक नहीं करती थी, सो वे गुप्त सूचनायें एकत्र करने से लेकर गोला-बारूद तथा क्रान्तिकारी साहित्य व पर्चे एक जगह से दूसरी जगह ले जाने हेतु क्रान्तिकारियों की काफी सहायता करती थीं। 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा देवी ने ही की। बैठक में अंगे्रज पुलिस अधीक्षक जे0 ए0 स्काॅट को मारने का जिम्मा वे खुद लेना चाहती थीं, पर संगठन ने उन्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी।

8 अप्रैल 1929 को सरदार भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ आजादी की गूँज सुनाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय विधान सभा भवन में खाली बेंचों पर बम फेंका और कहा कि -‘‘बधिरों को सुनाने के लिए अत्यधिक कोलाहल करना पड़ता है।’’ इस घटना से अंग्रेजी सरकार अन्दर तक हिल गयी और आनन-फानन में ‘साण्डर्स हत्याकाण्ड’ से भगत सिंह इत्यादि का नाम जोड़कर फांसी की सजा सुना दी। भगत सिंह को फांसी की सजा क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिये बड़ा सदमा थी। अतः क्रान्तिकारियों ने भगत सिंह को छुड़ाने के लिये तमाम प्रयास किये। मई 1930 में इस हेतु सेन्ट्रल जेल लाहौर के पास बहावलपुर मार्ग पर एक घर किराये पर लिया गया, पर इन्हीं प्रयासों के दौरान लाहौर में रावी तट पर 28 मई 1930 को बम का परीक्षण करते समय दुर्गा देवी के पति भगवतीचरण वोहरा आकस्मिक विस्फोट से शहीद हो गये। इस घटना से दुर्गा देवी की जिन्दगी में अंधेरा सा छा गया, पर वे अपने पति और अन्य क्रान्तिकारियों की शहादत को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहती थीं। अतः, इससे उबरकर वे पुनः क्रान्तिकारी गतिविविधयों में सक्रिय हो गईं।

लाहौर व दिल्ली षडयंत्र मामलों में पुलिस ने पहले से ही दुर्गा देवी के विरुद्ध वारण्ट जारी कर रखा था। ऐसे में जब क्रान्तिकारियों ने बम्बई के गर्वनर मेल्कम हेली को मारने की रणनीति बनायी, तो दुर्गा देवी अग्रिम पंक्ति में रहीं। 9 अक्टूबर 1930 को इस घटनाक्रम में हेली को मारने की रणनीति तो सफल नहीं हुयी पर लैमिग्टन रोड पर पुलिस स्टेशन के सामने अंग्रेज सार्जेन्ट टेलर को दुर्गा देवी ने अवश्य गोली चलाकर घायल कर दिया। क्रान्तिकारी गतिविधियों से पहले से ही परेशान अंग्रेज सरकार ने इस केस में दुर्गा देवी सहित 15 लोगों के नाम वारण्ट जारी कर दिया, जिसमें 12 लोग गिरफ्तार हुये पर दुर्गा देवी, सुखदेव लाल व पृथ्वीसिंह फरार हो गये। अन्ततः अंग्रेजी सरकार ने मुख्य अभियुक्तों के पकड़ में न आने के कारण 4 मई 1931 को यह मुकदमा ही उठा लिया। मुकदमा उठते ही दुर्गा देवी पुनः सक्रिय हो गयीं और शायद अंग्रेजी सरकार को भी इसी का इन्तजार था। अन्ततः 12 सितम्बर 1931 को लाहौर में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, पर उस समय तक लाहौर व दिल्ली षड्यंत्र मामले खत्म हो चुके थे और लैमिग्टन रोड केस भी उठाया जा चुका था, अतः कोई ठोस आधार न मिलने पर 15 दिन बाद मजिस्ट्रेट ने उन्हें रिहा करने के आदेश दे दिये। अंगे्रजी सरकार चूँकि दुर्गा देवी की क्रान्तिकारी गतिविधियों से वाकिफ थी, अतः उनकी गतिविधियों को निष्क्रिय करने के लिये रिहाई के तत्काल बाद उन्हें 6 माह और पुनः 6 माह हेतु नजरबंद कर दिया। दिसम्बर 1932 में अंग्रेजी सरकार ने पुनः उन्हें 3 साल तक लाहौर नगर की सीमा में नजरबंद रखा।

तीन साल की लम्बी नजर बन्दी के बाद जब दुर्गा देवी रिहा हुयीं तो 1936 में दिल्ली से सटे गाजियाबाद के प्यारेलाल गल्र्स स्कूल में लगभग एक वर्ष तक अध्यापक की नौकरी की। 1937 में वे जबरदस्त रूप से बीमार पड़ी और दिल्ली की हरिजन बस्ती में स्थित सैनीटोरियम में उन्होंने अपनी बीमारी का इलाज कराया। उस समय तक विभिन्न प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी और इसी दौरान 1937 में ही दुर्गादेवी ने भी कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर राजनीति में अपनी सक्रियता पुनः आरम्भ की। अंग्रेज अफसर टेलर को मारने के बाद फरार रहने के दौरान ही उनकी मुलाकात महात्मा गाँधी से हो चुकी थी। 1937 में वे प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी दिल्ली की अध्यक्षा चुनी गयीं एवं 1938 में कांग्रेस द्वारा आयोजित हड़ताल में भाग लेने के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। 1938 के अन्त में उन्होंने अपना ठिकाना लखनऊ में बनाया और अपनी कांग्रेस सदस्यता उत्तर प्रदेश स्थानान्तरित कराकर यहाँ सक्रिय हुयीं। सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में आयोजित जनवरी 1939 के त्रिपुरी (मध्यप्रदेश) के कांग्रेस अधिवेशन में दुर्गा देवी ने पूर्वांचल स्थित आजमगढ़ जनपद की प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।

दुर्गा देवी का झुकाव राजनीति के साथ-साथ समाज सेवा और अध्यापन की ओर भी था। 1939 में उन्होंने अड्यार, मद्रास में मांटेसरी शिक्षा पद्धति का प्रशिक्षण ग्रहण किया और लखनऊ आकर जुलाई 1940 में शहर के प्रथम मांटेसरी स्कूल की स्थापना की, जो वर्तमान में इण्टर काॅलेज के रूप में तब्दील हो चुका है। मांटेसरी स्कूल लखनऊ की प्रबन्ध समिति में तो आचार्य नरेन्द्र देव, रफी अहमद किदवई व चन्द्रभानु गुप्ता जैसे दिगग्ज शामिल रहे। 1940 के बाद दुर्गादेवी ने राजनीति से किनारा कर लिया पर समाज सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को काफी सराहा गया।

दुर्गा देवी ने सदैव से क्रान्तिकारियों के साथ कार्य किया था और उनके पति की दर्दनाक मौत भी एक क्रान्तिकारी गतिविधि का ही परिणाम थी। क्रान्तिकारियों के तेवरों से परे उनके दुख-दर्द और कठिनाइयों को नजदीक से देखने व महसूस करने वाली दुर्गा देवी ने जीवन के अन्तिम वर्षांे में अपने निवास को ‘‘शहीद स्मारक शोध केन्द्र’’ में तब्दील कर दिया। इस केन्द्र में उन शहीदों के चित्र, विवरण व साहित्य मौजूद हैं, जिन्होंने राष्ट्रभक्ति का परिचय देते हुये या तो अपने को कुर्बान कर दिया अथवा राष्ट्रभक्ति के समक्ष अपने हितों को तिलांजलि दे दी। एक तरह से दुर्गा देवी की यह शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि थी तो आगामी पीढ़ियों को आजादी की यादों से जोड़ने का सत्साहस भरा जुनून भी। पारिवारिक गतिविधियों से लेकर क्रान्तिकारी, कांग्रेसी, शिक्षाविद् और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में आजीवन सक्रिय दुर्गा देवी 92 साल की आयु में 14 अक्टूबर 1999 को इस संसार को अलविदा कह गयीं। दुर्गा देवी उन विरले लोगों में से थीं जिन्होंने गाँधी जी के दौर से लेकर क्रान्तिकारी गतिविधियों तक को नजदीक से देखा, पराधीन भारत को स्वाधीन होते देखा, राष्ट्र की प्रगति व विकास को स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के दौर के साथ देखा....आज दुर्गा देवी हमारे बीच नहीं हैं, पर हमें उनके सपनों, मूल्यों और जज्बातों का अहसास है। आज देश के विभिन्न क्षेत्रों में तमाम महिलायें अपनी गतिविधियों से नाम कमा रही हैं, पर दुर्गा देवी ने तो उस दौर में अलख जगायी जब महिलाओं की भूमिका प्रायः घर की चहरदीवारियों तक ही सीमित थी।

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

राष्ट्रमंडल खेल, गाँधी जी और जनकवि नागार्जुन....

आज से राष्ट्रमंडल खेल आरंभ हो रहे हैं. कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं तो कुछ पक्ष में. विरोध का कारण खेल नहीं बल्कि इन खेलों के पीछे छुपे गुलामी के अवशेष हैं. हम सभी ने देख की किस तरह भारत की राष्ट्रपति क्वींस-बैटन को लेने लन्दन पहुँची. आज भारत एक संप्रभु राष्ट्र है, हमें किसी भी आयोजन के लिए किसी की रहनुमाई की जरुरत नहीं है. मणिशंकर अय्यर, शिवराज सिंह चौहान के विरोध राजनैतिक हो सकते हैं, पर तमाम ऐसे भारतीय हैं, जो इन खेलों को गुलामी के प्रतीक रूप में देखते हैं. गुलामी के प्रतीकों को जितना जल्दी उतार दिया जाय, किसी राष्ट्र के लिए बेहतर ही होगा. वैसे भी राष्ट्रपिता गाँधी जी की जयंती के ठीक अगले दिन राष्ट्रमंडल खेलों की शुरुआत कहीं उस अंग्रेजी मानसिकता का परिचायक तो नहीं है, जो गाँधी जी के सपनों को भुला देनी चाहती है. यहाँ याद आती हैं जनकवि नागार्जुन की एक विलक्षण कविता, जो उन्होंने वर्ष 1961 में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के भारत दौरे को इंगित करते हुए लिखी थी.इसमें एक पंक्ति गौरतलब है- बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो।...कहीं गाँधी जी के नाम पर सत्ता का स्वाद चखती कांग्रेस सरकार 'गाँधी जयंती' के अगले दिन इस आयोजन का उद्घाटन करवाकर बापू को छेड़ तो नहीं रही है। सौभाग्यवश यह नागार्जुन जी का जन्म -शताब्दी अवसर भी है, अत: यह कविता और भी प्रासंगिक हो जाती है-

आओ रानी,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी,

यही हुई है राय जवाहरलाल की,

रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की,

यही हुई है राय जवाहरलाल की,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !


आओ शाही बैण्ड बजायें,

आओ बन्दनवार सजायें,

खुशियों में डूबे उतरायें,

आओ तुमको सैर करायें...

उटकमंड की, शिमला-नैनीताल की,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !


तुम मुस्कान लुटाती आओ,

तुम वरदान लुटाती जाओ,

आओ जी चांदी के पथ पर,

आओ जी कंचन के रथ पर,

नज़र बिछी है, एक-एक दिकपाल की,

छ्टा दिखाओ गति की लय की ताल की,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !


सैनिक तुम्हें सलामी देंगे,

लोग-बाग बलि-बलि जायेंगे,

दॄग-दॄग में खुशियाँ छ्लकेंगी,

ओसों में दूबें झलकेंगी।

प्रणति मिलेगी नये राष्ट्र के भाल की,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !


बेबस-बेसुध, सूखे-रुखडे़,

हम ठहरे तिनकों के टुकडे़,

टहनी हो तुम भारी-भरकम डाल की,

खोज खबर तो लो अपने भक्तों के खास महाल की !

लो कपूर की लपट,

आरती लो सोने की थाल की,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !


भूखी भारत-माता के सूखे हाथों को चूम लो।

प्रेसिडेन्ट की लंच-डिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो।

पद्म-भूषणों, भारत-रत्नों से उनके उद्गार लो,

पार्लियामेंट के प्रतिनिधियों से आदर लो, सत्कार लो।

मिनिस्टरों से शेकहैण्ड लो, जनता से जयकार लो।

दायें-बायें खडे हज़ारी आफ़िसरों से प्यार लो।

धनकुबेर उत्सुक दीखेंगे उनके ज़रा दुलार लो।

होंठों को कम्पित कर लो, रह-रह के कनखी मार लो।

बिजली की यह दीपमालिका, फिर-फिर इसे निहार लो।

यह तो नयी नयी दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो।

एक बात कह दूं मलका, थोडी-सी लाज उधार लो।

बापू को मत छेडो, अपने पुरखों से उपहार लो।

जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की !

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !


रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की,

यही हुई है राय जवाहरलाल की,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

महात्मा गाँधी


महात्मा गाँधी
सत्य और अहिंसा की मूर्ति
जिसके सत्याग्रह ने
साम्राज्यवाद को भी मात दी
जिसने भारत की मिट्टी से
एक तूफान पैदा किया
जिसने पददलितों और उपेक्षितों
की मूकता को आवाज दी
जो दुनिया की नजरों में
जीती-जागती किवदंती बना
आज उसी गाँधी को हमने
चौराहों, मूर्तियों, सेमिनारों और किताबों
तक समेट दिया
गोडसे ने तो सिर्फ
उनके भौतिक शरीर को मारा
पर हम रोज उनकी
आत्मा को कुचलते देखते हैं
खामोशी से।

(पतिदेव कृष्ण कुमार जी के काव्य-संकलन 'अभिलाषा' से साभार )

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

बड़े-बुजुर्गों के बारे में आत्मीयता से सोचें..

आजकल हर दिन किसी न किसी को समर्पित हो गया है. कई लोग इसका विरोध भी करते हैं, पर इसका सकारात्मक पहलू यह है कि आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में एक पल ठहरकर हम उस भावना पर विचार करें, जिस भावना से ये दिवस आरंभ हुए हैं. ..आज अंतर्राष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस है. संयुक्त परिवार जैसे-जैसे टूटते गए, बुजुर्गों की स्थिति भी दयनीय होती गई. हम यह भूल गए कि इनके बिना हमारे जीवन का कोई आधार नहीं है. दैनिक ट्रिब्यून अख़बार में प्रकाशित शब्द गौरतलब हैं- '' वृद्धजन सम्पूर्ण समाज के लिए अतीत के प्रतीक, अनुभवों के भंडार तथा सभी की श्रद्धा के पात्र हैं। समाज में यदि उपयुक्त सम्मान मिले और उनके अनुभवों का लाभ उठाया जाए तो वे हमारी प्रगति में विशेष भागीदारी भी कर सकते हैं। इसलिए बुजुर्गों की बढ़ती संख्या हमारे लिए चिंतनीय नहीं है। चिंता केवल इस बात की होनी चाहिए कि वे स्वस्थ, सुखी और सदैव सक्रिय रहें।''


यहाँ भीष्म साहनी की कहानी 'चीफ की दावत' याद आती है, जहाँ बेटे ने अपने बास को घर बुलाने से पहले बूढी माँ को कैद ही कर दिया. पर जाते-जाते बास माँ से टकरा ही गया और वो भावनात्मक पल...! आज कहीं वृद्धाश्रम खुल रहे हैं तो कहीं घर में बुजुर्गों की जिंदगी जलालत का शिकार हो रही है. बड़े शहरों में अक्सर ऐसी घटनाएँ सुनने को मिलती हैं, जहाँ बुजुर्ग घर में अकेले रहते हैं और चोरी-हत्या इत्यादि के शिकार होते हैं. इन परिस्थितियों में बुजुर्ग अपने आपको उपेक्षित महसूस न करें, यह समाज की जवाबदारी है। भारत देश की बात करें तो हमारे यहाँ 1991 में 60 वर्ष से अधिक आयु के 5 करोड़ 60 लाख व्यक्ति थे। जो 2007 में बढ़कर 8 करोड़ 40 लाख हो गये। देश में सबसे अधिक बुजुर्ग केरल में हैं, जहाँ कुल जनसंख्या में 11 प्रतिशत बुजुर्ग हैं, जबकि सम्पूर्ण देश में यह औसत लगभग 8 प्रतिशत है।

जरुरत है कि हम अपने बड़े-बुजुर्गों के बारे में गहराई और आत्मीयता से सोचें और हमारे बुजुर्ग भी अपने को रचनात्मक कार्यों में लगायें, तभी मानवता का हित होगा.

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

जीवन एक पुष्प समान

यह जीवन एक पुष्प समान है. आप अपने हृदय के पटों को जितना खोलेंगें अर्थात अपनी विचारधारा को जितना विकसित करेंगें, वह समाज को उतना ज्यादा सुवासित करेगी !!

सोमवार, 27 सितंबर 2010

पर्यटन की विविधता...

भारत विविधताओं का देश है. हर प्रान्त की अपनी लोक-संस्कृति है, विरासत है, धरोहरे हैं और तमाम महत्वपूर्ण पर्यटन-स्थल हैं. आज भी अपने देश के अलावा तमाम विदेशी सैलानी भारत पर्यटन के लिए आते हैं- किसी को ताजमहल भाता है तो किसी को लालकिला. कोई गाँधी के देश को देखना चाहता है तो कोई अध्यात्मवादी भारत को. कुछ को पहाड़ों से लगाव है तो कोई समुद्र से अठखेलियाँ करना चाहता है तो किसी को गंगा-तट पर घूमना अच्छा लगता है. मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारे-चर्च से लेकर रोज खुलते आश्रमों और फिर ध्वस्त होते या होटलों में तब्दील होते राजमहल/ किलों को देखना भला किसे नहीं भाता है. कोई आई. टी. सिटी बंगलूर को देखकर अचंभित होता है तो किसी को आज भी जयपुर का हवामहल आकर्षित करता है. किसी पर्यटक को ट्रेकिंग पसंद है तो कुछ को जंगलों में बीच जाकर विलुप्त होते जानवरों को देखने का शगल है. जितने प्रदेश, उतने भेष....जहाँ भी जाइये, कुछ अलग ही मिलेगा. आखिरकार यूँ ही नहीं है कि तमाम विदेशी, पर्यटक के रूप में भारत आये, और फिर यहीं के होकर रह गए. आज कोई समाज-सेवा में लगा है तो कोई झुग्गी-झोपड़ियों में शिक्षा का उजियारा फैला रहा है. राहुल संकृत्यायन ने अपने इसी घुम्मकड़ी/ पर्यटक स्वभाव के चलते विदेशों से बौद्ध साहित्य खच्चरों पर लादकर लाने का साहस दिखाया.

ऐसा नहीं है कि सब कुछ अच्छा ही है. पर्यटन के नाम पर लूट-खसोट भी है तो पर्यटकों से दुर्व्यवहार भी शामिल है. बेरोजगारी के इस दौर में हर कोई पैसे बनाना चाहता है और उसे नजर आते हैं ये विदेशी पर्यटक. कभी गंगा जल तो कभी मिट्टी की मूर्तियों को प्राचीन बताकर बेचना....हर कहीं व्यवसाय हावी है. कोई ज्यादा किराया माँग रहा है तो कोई उन्हें नशे की लत दे रहा है. आजकल चैनल्स पर एक विज्ञापन भी आता है, जिसमें आमिर खान इन सबके विरुद्ध एक स्वस्थ माहौल बनाने में लगे हैं. दुर्भाग्यवश, ध्वस्त होते ऐतिहासिक भवनों और उनकी आड में पनपती बुराइयाँ, वहाँ लिखे अश्लील शब्द कई बार असहजता की स्थिति में ला देते हैं. जरुरत है की हम स्वयं अपनी जिम्मेदारियों को पहचानें और भारत में पर्यटन के लिए एक स्वस्थ माहौल बनायें. इससे न सिर्फ राजस्व प्राप्त होता है, बल्कि अपने देश की छवि भी निखरती है.

...यह सब चर्चा इसलिए भी कि आज विश्व पर्यटन दिवस है. संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 1980 के बाद से लगातार प्रति वर्ष विश्व पर्यटन संगठन के माध्यम से 27 सितंबर को विश्व पर्यटन दिवस मनाया जाता है. यह तारीख वास्तव में 1970 में इस प्रयोजन हेतु चुनी गई थी. इस दिन का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय समुदाय के भीतर पर्यटन की भूमिका के बारे में जागरूकता बढ़ाना और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करना है. इस वर्ष इस दिवस का विषय 'पर्यटन तथा जैव-विविधता' रखा गया है !!

रविवार, 26 सितंबर 2010

बेटियों के प्रति नजरिया बदलने की जरुरत (डाटर्स-डे पर विशेष)

आज डाटर्स डे है, यानि बेटियों का दिन. यह सितंबर माह के चौथे रविवार को मनाया जाता है अर्थात इस साल यह 26 सितम्बर को मनाया जा रहा है. गौरतलब है कि चाईल्‍ड राइट्स एंड यू (क्राई) और यूनिसेफ ने वर्ष 2007 के सितंबर माह के चौथे रविवार यानी 23 सितंबर, 2007 को प्रथम बार 'डाटर्स-डे' मनाया था, तभी से इसे हर वर्ष मनाया जा रहा है. इस पर एक व्यापक बहस हो सकती है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस दिन का महत्त्व क्या है, पर जिस तरह से अपने देश में लिंगानुपात कम है या भ्रूण हत्या जैसी बातें अभी भी सुनकर मन सिहर जाता है, उस परिप्रेक्ष्य में जरुर इस दिन का प्रतीकात्मक महत्त्व हो सकता है. दुर्भाग्यवश हर ऐसे दिन को हम ग्रीटिंग्स-कार्ड, गिफ्ट और पार्टियों से जोड़कर देखते हैं. कार्पोरेट कंपनियों ने ऐसे दिनों का व्यवसायीकरण कर दिया है. बच्चे उनके माया-जाल में उलझते जा रहे हैं. डाटर्स डे की महत्ता तभी होगी, जब हम यह सुनिश्चित कर सकें कि-

१- बेटियों को इस धरा पर आने से पूर्व ही गर्भ में नहीं मारा जाना चाहिए।

२- बेटियों के जन्म पर भी उतनी ही खुशियाँ होंनी चाहिए, जितनी बेटों के जन्म पर।

३- बेटियों को घर में समान परिवेश, शिक्षा व व्यव्हार मिलना चाहिए. (ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी दोयम व्यवहार होता है)।

४- यह कहना कि बेटियां पराया धन होती हैं, उचित नहीं प्रतीत होता. आज के दौर में तो बेटे भी भी शादियों के बाद अपना अलग घर बसा लेते हैं।

५- बेटियों को दहेज़ के लिए प्रताड़ित करने या जिन्दा जलाने जैसी रोगी मानसिकता से समाज बाहर निकले।

६- बेटियां नुमाइश की चीज नहीं बल्कि घर-परिवार और जीवन के साथ-साथ राष्ट्र को संवारने वाली व्यक्तित्व हैं।

७-पिता की मृत्यु के बात पुत्र को ही अग्नि देने का अधिकार है, जैसी मान्यताएं बदलनी चाहियें. इधर कई लड़कियों ने आगे बढ़कर इस मान्यता के विपरीत शमशान तक जाकर सारे कार्य बखूबी किये हैं।

८-वंश पुत्रों से ही चलता है. ऐसी मान्यताओं का अब कोई आधार नहीं. लड़कियां अब माता-पिता की सम्पति में हक़दार हो चुकी हैं, फिर माता-पिता का उन पर हक़ क्यों नहीं. आखिरकार बेटियां भी तो आगे बढ़कर माता-पिता का नाम रोशन कर रही हैं.

....यह एक लम्बी सूची हो सकती है, जरुरत है इस विषय पर हम गंभीरता से सोचें की क्या बेटियों के बिना परिवार-समाज-देश का भविष्य है. बेटियों को मात्र बातों में दुर्गा-लक्ष्मी नहीं बनायें, बल्कि वास्तविकता के धरातल पर खड़े होकर उन्हें भी एक स्वतंत्र व्यक्तित्व का दर्ज़ा दें. बात-बात पर बेटियों की अस्मिता से खिलवाड़ समाज और राष्ट्र दोनों के लिए घातक है. बेटियों को स्पेस दें, नहीं तो ये बेटियां अपना हक़ लेना भी जानती हैं. आज जीवन के हर क्षेत्र में बेटियों ने सफलता के परचम फैलाये हैं, पर देश के अधिकतर भागों में अभी भी उनके प्रति व्यवहार समान नहीं है. समाज में वो माहौल बनाना चाहिए जहाँ हर कोई नि: संकोच कह सके- अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ !!

शनिवार, 25 सितंबर 2010

21वीं सदी की बेटी

(यूँ ही डायरी में अपने मनोभावों को लिखना मेरा शगल रहा है। ऐसे ही किसी क्षण में इन मनोभावों ने कब कविता का रूप ले लिया, पता ही नहीं चला। पर यह शगल डायरी तक ही सीमित रहा, कभी इनके प्रकाशन की नहीं सोची। फिलहाल तो देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में मेरी कविताएं प्रकाशित हो रही हैं, पर मेरी प्रथम कविता कादम्बिनी पत्रिका में ‘‘युवा बेटी‘‘ शीर्षक ‘नये पत्ते‘ स्तम्भ के अन्तर्गत दिसम्बर 2005 में प्रकाशित हुई थी। आज उसे ही यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ-)

जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने

पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है

वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना।

-आकांक्षा यादव

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

आजमगढ़ का लालगंज और चुलबुल पाण्डेय की दबंगई

उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल बेल्ट काफी दबंग माना जाता है. तमाम हिंदी-फिल्मों की थीम यहाँ के इर्द-गिर्द घूमती हैं. आजकल सलमान खान की ‘दबंग‘ फिल्म चर्चा में है और उसके केंद्र में इसी बेल्ट के आजमगढ़ जिले के लालगंज क्षेत्र की कहानी है. एक तरफ जहाँ फिल्मों का स्वरूप बदलने लगा है वहीं दबंग अभी भी इस भोजपुरी बेल्ट को समेटे हुए है। वैसे भी भोजपुरी इलाके का तड़का फिल्मों को मशहूर कर देता है। याद कीजिए शिल्पा शेट्टी का - आई हूँ यू-पी-बिहार लूटने। यू-पी-बिहार के भैया लोग तो देश के कोने-कोने में भरे हुए हैं। विदेशों में भी उनकी भारी तादात है। उत्तर प्रदेश का आजमगढ़ तो अपनी इन्हीं अदाओं के कारण दुनिया भर में मशहूर है। कभी राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध‘, शिब्ली नोमानी व कैफी आजमी के नाम से पहचाना जाने वाला आजमगढ़ पिछले कई सालों से आतंकवाद के चलते चर्चा में रहा है. इसकी सच्चाई क्या है, यह एक व्यापक बहस का विषय हो सकता है पर मीडिया ने फ़िलहाल इसे इसे रूप में प्रचारित किया है.

आजमगढ़ से जुडी एक दिलचस्प दास्तां पर गौर कीजिए-कुछ साल पहले नेपाल में एक शूटर को मार गिराया गया। उस शूटर के पास से एक देशी कट्टा बरामद हुआ, जिस पर लिखा था ‘मेड इन बम्हौर‘। नेपाल पुलिस को ‘बम्हौर‘ नामक देश ढूँढने में पसीने छूट गए। फिर अंडरवर्ल्ड से जुड़े एक शख्स से उन्हें जानकारी मिली कि बम्हौर किसी देश का नहीं बल्कि उ0 प्र0 में आजमगढ़ के एक गाँव का नाम है जहाँ गन्ने के खेतों के बीच बकायदा देशी कट्टे बनाए जाते हैं और इनका निशाना अचूक होता है। यह सुनकर तो नेपाल पुलिस का माथा भी चकरा गया। आजमगढ़ को आतंक का पर्याय बनाने में मीडिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी . यहाँ का संजरपुर गाँव चर्चा में बना रहा. बड़े-बड़े नेता जाकर वहाँ राजनीति की रोटियाँ सेंक आए। अब इसमें आजमगढ़ का क्या दोष है कि अबू सलेम भी आजमगढ़ का बाशिंदा है और लोगों की मानें तो दाउद इब्राहिम का ननिहाल भी यहीं है। महाराष्ट्र के चर्चित सपा नेता अबू आसिमी, जिन पर विधानसभा में थप्पड़ तक उठाया गया, मूलतः आजमगढ़ के ही हैं। दुर्भाग्यवश नकारात्मक चीजें जल्दी चर्चा में आती हैं.

‘दबंग‘ फिल्म में सलमान खान जिस उ0 प्र0 के लालगंज नामक इलाके के दुस्साहसी पुलिस इंस्पेक्टर बने हैं, वह भी आजमगढ़ में ही है। याद कीजिए कभी ममता बनर्जी ने संसद में लोकसभा सदस्य तूफानी सरोज की कालर पकड़ ली थी, तब वे लालगंज से ही सांसद थे। उ0 प्र0 विधानसभा के अध्यक्ष सुखदेव राजभर भी लालगंज के ही प्रतिनिधि हैं। लालगंज की महिमा अभी भी समझ में नहीं आई तो हाई-प्रोफाइल नेता नेता अमर सिंह भी लालगंज से ही हैं। यूँ ही अभिनव कश्यप ने ‘लालगंज‘ इलाके को नहीं चुना है। एक तो आजमगढ़ इधर नकारात्मक रूप में काफी चर्चित रहा है और लालगंज भी चर्चित क्षेत्र है. यह आजमगढ़-बनारस रोड पर स्थित है. चूँकि यह जिस बेल्ट में है, वहां दबंगई भी मिलेगी, भ्रष्ट लोग भी मिलेंगें, भोजपुरी पुट भी मिलेगा, ‘मुन्नी‘ भी मिलेगी और ‘झंडु बाम‘ भी...यानि एक फिल्म के लिए पूरा मसाला. क्या पता कल को सलमान खान किसी के चुनाव में यहाँ प्रचार करने आयें और लालगंज में चुलबुल पांडे की दबंगई से सचमुच उनकी मुलाकात हो जाये !!

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

एक वृक्ष देता है 15.70 लाख के बराबर सम्पदा

वृक्ष हैं तो जीवन है। वृक्षों के बिना धरती बंजर है। वृक्ष न सिर्फ धरती के आभूषण हैं बल्कि मानवीय जीवन का आधार भी हैं। वृक्ष हमें प्रत्यक्ष रूप से फल-फूल, चारा, कोयला, दवा, तेल इमारती लकड़ी के साथ जलाने की लकड़ी इत्यादि प्रदान करते हंै। वृक्ष से हमें वायु शुद्धीकरण, छाया, पशु प्रोटीन, आक्सीजन के अलावा भी कुछ ऐसी चीजें मिलती हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए हमें लाखों रूपये 15 लाख 70 हजार खर्च करने पड़ते। एक वृक्ष अपने जीवनकाल में जितनी वायु को शुद्ध करता है उतनी वायु को अप्राकृतिक रूप अर्थात मशीन से शुद्ध किया जाय तो लगभग 5 लाख रूपये खर्च करना पड़ेगा। इसी तरह वृक्ष छाया के रूप में 50 हजार, पशु-प्रोटीन चारा के रूप में 20 हजार, आक्सीजन के रूप में 2.5 लाख, जल सुरक्षा चक्र के रूप में 5 लाख एवं भूमि सुरक्षा के रूप में 2.5 लाख के साथ हमारे स्वस्थ जीवन के लिए कुल 15 लाख 70 हजार रूपये का लाभ पहुँचाता है।

पर आज का मानव इतना निष्ठुर हो चुका है कि वृक्षों के इतने उपयोगी होने के बाद भी थोड़े से स्वार्थ व लालच में उन्हें बेरहमी से काट डालता है। उसे यह भी याद नहीं रहता कि हमारे पूर्वजों ने वृक्षों को संतान की संज्ञा देते हुए इन्हें धरती का आभूषण बताया है। जरूरत है कि लोग इस मामले पर गम्भीरता से सोचें एवं संकल्प लें कि किसी भी शुभ अवसर पर वे वृक्षारोपण अवश्य करेंगे अन्यथा वृक्षों के साथ-साथ मानव-जीवन भी खतरे में पड़ जायेगा।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

भारत वर्ष की शान है हिन्दी


हम लोगों की जान है हिन्दी,
भारत वर्ष की शान है हिन्दी।
प्रगति-पथ पर बढ़ती जाती,
कितनी बेमिसाल है हिन्दी।

सुन्दर शब्दों की खान है हिन्दी,
अस्मिता की पहचान है हिन्दी।
अंग्रेजी की अंधभक्ति छोड़ें,
जन्मभूमि का सम्मान है हिन्दी।

सब भाषाओं की जान है हिन्दी,
जन-जन की जुबान है हिन्दी।
देशभक्ति का करे संचार,
भूत, भविष्य, वर्तमान है हिन्दी।

शनिवार, 11 सितंबर 2010

हिन्दी की तलाश जारी है...

आजकल तो हिंदी की ही चर्चा है, आखिर पखवाड़ों का दौर जो है. एक तरफ हिंदी को बढ़ावा देने की लम्बी-लम्बी बातें, उस पर से भारत सरकार के बजट में हिंदी के मद में जबरदस्त कटौती. केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2010-11 के बजट में हिन्दी के लिए आवंटित राशि में पिछले वर्ष की तुलना में दो करोड़ रुपये की कटौती कर दी है। वित्त वर्ष 2010-11 के आम बजट में राजभाषा के मद में 34.17 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया जबकि चालू वित्त वर्ष 2009-10 के बजट में इस खंड में 36.22 करोड़ रुपये दिये गये थे।

लगता है हिंदी के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं. अभी तक हम हिंदी अकादमियों का खुला तमाशा देख रहे थे, जहाँ कभी पदों की लड़ाई है तो कभी सम्मानों की लड़ाई. अब तो सम्मानों को ठुकराना भी चर्चा में आने का बहाना बन गया है. हर कोई बस किसी तरह सरकार में बैठे लोगों की छत्र-छाया चाहता है. इस छत्र-छाया में ही पुस्तकों का विमोचन, अनुदान और सरकारी खरीद से लेकर सम्मानों तक की तिकड़मबाज़ी चलती है. और यदि यह बाज़ी हाथ न लगे तो श्लीलता-अश्लीलता का दौर आरंभ हो जाता है. मकबूल फ़िदा हुसैन साहब का बाज़ार ऐसे लोगों ने ही बढाया. आजकल तो जमाना बस चर्चा में रहने का है, बदनाम हुए तो क्या हुआ-नाम तो हुआ. अभी हिंदी अकादमी, दिल्ली की चर्चा ख़त्म ही नहीं हुई थी कि भारतीय ज्ञानपीठ ने बेवफाई के नाम पर अपना रंग फिर से दिखा दिया.

साहित्य कभी समाज को रास्ता दिखाती थी, पर अब तो खुद ही यह इतने गुटों में बँट चुकी है कि हर कोई इसे निगलने के दावे करने लगा है. साहित्यकार लोग राजनीति की राह पर चलने को तैयार हैं, बशर्ते कुलपति, राज्यसभा या अन्य कोई पद उन्हें मिल जाय. कभी निराला जी ने पंडित नेहरु को तवज्जो नहीं दी थी, पर आज भला किस साहित्यकार में इतना दम है. हर कोई अपने को प्रेमचंद, निराला की विरासत का संवाहक मन बैठा है, पर फुसफुसे बम से ज्यादा दम किसी में नहीं. तथाकथित बड़े साहित्यकार एक-दूसरे की आलोचना करके एक-दूसरे को चर्चा में लाते रहते हैं. दिखावा तो ऐसा होता है मानो वैचारिक बहस चल रही हो, पर उछाड़ -पछाड़ से ज्यादा यह कुछ नहीं होना. दिन भर एक दूसरे की आलोचना कर प्रायोजित रूप में एक-दूसरे को चर्चा में लाने वाले हमारे मूर्धन्य साहित्यकार शाम को गलबहियाँ डाले एक-दूसरे के साथ प्याले छलका रहे होते हैं.

हर पत्रिका के अपने लेखक हैं, तो हर साहित्यकार का अपना गैंग, जो एक-दूसरे पर वैचारिक (?) हमले के काम आते हैं. अभी नया ज्ञानोदय और विभूति नारायण राय वाले मामले में यह बखूबी देखने को मिला. कुछ दिनों पहले ही एक मित्र ने बताया कि एक प्रतिष्ठित पत्रिका में अपनी रचना प्रकाशित करवाने के लिए किस तरह उन्होंने अपने एक रिश्तेदार साहित्यकार से पैरवी कराई. पिछले दिनों कहीं पढ़ा था कि हिंदी के एक ठेकेदार दावा करते हैं कि वह कोई भी सम्मान आपकी झोली में डाल सकते हैं, बशर्ते पूरी पुरस्कार राशि आप उन्हें ससम्मान सौंप दे. बढ़िया है, किसी को नाम चाहिए, किसी को पैसा, किसी को पद तो किसी को चर्चा. हिंदी अकादमियां घुमाने-फिराने का साधन बन रही हैं या पद और पुरस्कार की आड में बन्दर-बाँट का. पर इन सबके बीच हिन्दी या साहित्य कहीं नहीं है. हिन्दी की तलाश अभी जारी है, यदि आपको दिखे तो अवश्य बताईयेगा !!
Akanksha Yadav आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर : http://shabdshikhar.blogspot.com/