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शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

फिर से हाज़िर...

लीजिए जी, हमारा जन्मदिन फिर से हाज़िर हो गया. कल 30 जुलाई को हम अपना जन्म-दिन सेलिब्रेट करेंगें. वैसे, अभी तो पिछले साल ही मनाया था, पर यह तो पीछा ही नहीं छोड़ता. हर साल आ जाता है यह बताने के लिए आपकी उम्र एक साल और कम हो गई. फिर से मजबूर कर देता है पीछे मुड़कर देखने के लिए कि इस एक साल में क्या खोया-क्या पाया ? फ़िलहाल हमारी छोटी बिटिया तान्या (तन्वी, आइमा, अस्मिता भी कहते हैं...) पहली बार हमारे जन्म-दिन पर शरीक हो रही हैं. अच्छा लगता है उसका बचपना. अभी तो 27 जुलाई को 9 माह की हुई है. अभी तो सारा समय उसी के साथ निकल जाता है. कुछ ज्यादा लिखना-पढना भी नहीं हो पा रहा है. इस बीच यह प्रयास जरूर रहा है कि बाल-गीतों पर मेरी पहली पुस्तक शीघ्र प्रकाशित होकर हाथ में आ जाए. इस बीच हमारे (आकांक्षा-कृष्ण कुमार) व्यक्तित्व-कृतित्व पर भी एक प्रकाशन ने पुस्तक जारी करने की योजना बनाई है. वह भी कार्य प्रगति पर है.

...कल हमारा जन्म-दिन है. सबसे अच्छी बात यह है कि शनिवार के चलते कृष्ण कुमार जी का आफिस नहीं है और बिटिया पाखी का स्कूल भी बंद है. अंडमान में बारिश भी जोरों पर है, सो बाहर किसी द्वीप पर निकलने का भी स्कोप नहीं है. तो फिर पोर्टब्लेयर में ही जन्म-दिन सेलिब्रेट करेंगें...घूमेंगें-फिरेंगें, पार्टी करेंगें, केक काटेंगें और सपरिवार मस्ती करेंगें.
ब्लागिंग जगत में आप सभी के स्नेह से सदैव अभिभूत रही हूँ. जीवन के हर पड़ाव पर आप सभी की शुभकामनायें और स्नेह की धार बनी रहेगी, इसी विश्वास के साथ.... !!

सोमवार, 18 जुलाई 2011

कहां खो गई दादा-दादी की कहानी


बचपन में स्कूल की छुट्टियों में ननिहाल जाने पर मेरी नानी हम सब बच्चों को अपने पास बिठाकर मजेदार कहानियां सुनाया करती थी। उनकी कहानियों का विषय राजा, राजकुमार, राजकुमारी व दुष्ट जादूगर हुआ करते थे। अकबर-बीरबल व विक्रम-बेताल के किस्से हमें अपने साथ बांधे रखते थे। कभी-कभार नानी हमें भारत विभाजन के दौरान पाकिस्तान से भारत आने के दौरान हुए मुश्किलों भरे सफर की जानकारी भी तपफसील से देती, जो उस समय हमारे लिए रोचक किस्सों से कम
नहीं होता था। आज नानी नहीं रही, लेकिन दिमाग पर जोर डालते ही उसके किस्से-कहानियां ताजा हो उठती हैं। मेरी तरह वे सभी लोग खुशनसीब होंगे जिन्हें बचपन में अपने दादा-दादी, नाना-नानी के साथ इस तरह की बैठकों का अनुभव होगा।

कुछ दशक पहले ही बच्चों में काॅमिक्स बेहद लोकप्रिय थीं। इन काॅमिक्स के पात्रों में पैफंटम, चाचा चैधरी, लम्बू-मोटू, राजन-इकबाल, पफौलादी सिंह, महाबली शाका, ताऊजी, चाचा-भतीजा, जादूगर मैंड्रक, बिल्लू, अंकुर, पिंकी, रमन, क्रुकबांड सरीखे तमाम पात्रा बच्चों को अपने ही परिवेश के प्रतीत होते थे। जो उनमें पफैंटसी के अलावा रोमांच, चतुराई उभारते हुए उनकी कल्पनाशक्ति विकसित करते थे। अमर चित्रकथा ने भारतीय संस्कृति पर काॅमिक रचकर बच्चों का अपार ज्ञानवर्धन किया। इतना ही नहीं किशोरों के लिए साहस, रोमांच व ज्ञान से भरपूर पाॅकेट बुक्स भी प्रकाशित की गई। अस्सी-नब्बे के दशक में पाॅकेट बुक्स का जादू भी बाल पाठकों के दिलोदिमाग पर छाया रहा। डायमंड, मनोज, राजा, शकुन, पवन, साधना पाॅकेट बुक्स के अलावा अन्य जाने-माने प्रकाशनों ने बच्चों के लिए भरपूर छोटे उपन्यास प्रकाशित किए। उस समय बच्चों में भी यह क्रेज रहता था कि उन्होंने अपने पसंदीदा पात्रों की पाॅकेट बुक्स पढ़ी या नहीं। बच्चे आपस में अदल-बदल कर अपनी पसंदीदा किताबें पढ़ने से नहीं चूकते थे।

बालरुचि के अनुरूप ही मधु मुस्कान, लोटपोट, पराग, टिंकल, नंदन, बालमेला, चंपक, चंदामामा, चकमक, हंसती दुनिया, बालहंस, बाल सेतु, बाल वाटिका, नन्हे सम्राट, देवपुत्र, लल्लू जगधर, बालक, सुमन सौरभ जैसी बाल-पत्रिकाएं भी प्रकाशित हुई, जिनमें से कुछ आज भी बाल पाठकों को लुभा रही हैं। सरकारी तौर पर भी नन्हें तारे, बाल वाणी जैसी बाल-पत्रिकाएं शुरू की गई जो काल कलवित हो गई। अलबत्ता प्रकाशन विभाग की बाल भारती व नेशनल बुक ट्रस्ट की पाठक मंच बुलेटिन आज भी नियमित प्रकाशित हो रही हैं। यदि केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारें बाल-साहित्य प्रकाशन व प्रोत्साहन की दिशा में गंभीरता से रुचि ले तो यह भावी नागरिकों के हित में एक अच्छा कदम होगा। दैनिक समाचार-पत्रों में भी अपने बाल-पाठकों को खास ख्याल रखते हुए प्रायः रविवारीय विशेषांक में बाल-साहित्य को प्रमुखता से स्थान दिया जाता था। परन्तु बाजारवाद के मौजूदा दौर में बाल साहित्य अब केवल औपचारिकता बनकर रह गया है तथा सृजनात्मक साहित्य के स्थान पर बच्चों को ज्यादातर इंटरनेट की सामग्री परोसी जा रही है। रोचक-मजेदार बाल कथाओं का तो अब अभाव हो चला है। यही नहीं बाल-साहित्यकार भी खुद को उपेक्षित महसूस करते हुए साहित्य की अन्य विधाओं की ओर उन्मुख होते जा रहे हैं। यह स्थिति बाल-साहित्य के लिए बेहद घातक है। दूसरी तरफ आज के व्यस्तता भरे समय में जहां भौतिकवाद ने रिश्तों में दूरियां बना दी हैं, वहीं टेलीविजन तथा कम्प्यूटर ने बचपन को एक तरह से लील लिया है। मनोरंजन के नाम पर बच्चों के पास वीडियो गेम, कम्प्यूटर, इंटरनेट, केबल टीवी से लेकर मोबाइल जैसे तमाम उपकरण भले ही आ गए हों पर इनमें से कोई भी उन्हें स्वस्थ मनोरंजन दे पाने में सक्षम नहीं। वैज्ञानिक शोधों से पता चला है कि इंटरनेट, टीवी व वीडियो गेम बच्चों में तनाव, हिंसा, कुंठा व मनोरोगों को जन्म दे रहा है। इन उपकरणों से जुड़े रहने वाले बच्चों की आंखों पर मोटे-मोटे चश्मे भी देखे जा सकते हैं। पश्चिमी संस्कृति से प्रेरित कार्टून पिफल्में व अन्य डब किए गए कार्यक्रम बाल सुलभ मन में अश्लीलता व विकारों के बीज बो रहे हैं। उनकी भाषा भी व्यवहार की तरह संस्कारविहीन होती जा रही है।

इस परिस्थिति में बच्चों में नैतिकता, शिष्टाचार, ईमानदारी सहित अन्य सद्गुणों के विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए जरूरी है कि हम सब बाल-साहित्य की प्रासंगिकता व उपादेयता को समझते हुए उसे बाल-जीवन में स्थान दें। बच्चों को संस्कारवान बनाने में गीताप्रेस-गोरखपुर का बाल साहित्य व अमर चित्राकथा बेजोड़ है। बाल साहित्यकारों को एक चुनौती की तरह भारतीय आधुनिक परिवेश के हिसाब से अपने साहित्य को विकसित करना चाहिए। अभिभावकों को भी बच्चों पर पढ़ाई का बोझ न लादते हुए कुछ समय स्वाध्याय के लिए प्रेरित करना चाहिए। साहित्य पठन के इन पलों में बच्चों का स्वस्थ मनोरंजन होने के साथ ही उनमें मानवीय गुण तो विकसित होंगे ही, एकाग्रता व शिक्षा के प्रति रूझान भी बढ़ेगा।

संदीप कपूर
-88/1395, बलदेव नगर
अंबाला सिटी-134007 (हरियाणा)

बुधवार, 13 जुलाई 2011

250 पोस्ट, 200 फालोवर्स ...


आज जब 'शब्द-शिखर' पर 250 पोस्ट और 200 फालोवार्स का सफ़र पूरा हो चुका है, तो एक सुखद अनुभूति सी होती है. जब 20 नवम्बर, 2008 को जब पतिदेव कृष्ण कुमार जी की प्रेरणा से इस ब्लॉग की पहली पोस्ट लिखी थी तो सोचा भी न था कि ब्लागर्स और पाठकों का इतना स्नेह मिलेगा, पर भविष्य किसने देखा है. आप सबके स्नेह ने 'शब्द-शिखर' को यहाँ लाकर खड़ा किया है. इस बीच बिटिया अक्षिता (पाखी) ने भी शरारतों के साथ-साथ काफी सहयोग किया, ताकि मैं कुछ लिख सकूँ. 8 जुलाई, 2011 को ब्लॉग पर 'नश्तरे अहसास' नाम से एक टिप्पणी प्राप्त हुई- ''आपके 200 फालोवर्स होने पर बधाई...वैसे हम आपके 200 वें फालोवर्स बन रहे हैं..बधाई !"

जब इस लिंक पर जाकर देखा तो 'शब्द-शिखर' की यह 200 वीं फालोवर्स कानपुर की नेहा त्रिवेदी थीं. इनका परिचय देखना चाहा तो- ''कुछ खास नहीं बताने को अपने बारे में, बस इतना की ब्लॉगिंग की दुनिया में नयी-नयी आई हूँ. लिखने का तो शौक तो रखते थे,पर वह डायरी तक ही सीमित था. किसी दोस्त ने बताया ब्लॉग भी कुछ होता है, हमे लगा की क्यूँ न हम भी इस मंच पे जा कर अपनी रचनाओं को लोगों तक पहुंचाएं और ब्लॉग से जुड़े इतने बड़े-बड़े लेखकों को पढने का आनंद भी उठा सके. आप सभी बड़ों का आशीर्वाद चाहूंगी और हम-उम्र दोस्तों का प्रोत्साहन. यदि कुछ गलती हो जाये तो माफ़ कीजियेगा...............धन्यवाद!! :) नेहा त्रिवेदी.''

नेहा की एक पोस्ट पर भी नजर डाल लें तो पता चलेगा कि ये कितनी दिल्लगी से लिखती हैं-

मौसमें - सौगात

इस छोटी सी ज़िन्दगी में बहारे मौसम आ गई,
बहारे मौसम आँचल में समेटे इक सौगात ला गई,
तेरे इश्क का एहसास क्या हुआ
मेरे बेज़ार पड़े दिल में जीने की ललक छा गई !!

........नेहा जी, 'शब्द-शिखर' की 200 वीं फालोवर्स बनने के लिए आभार और बधाई भी !!

...इस 250 वीं पोस्ट के माध्यम से आप सभी के स्नेह और प्रोत्साहन के लिए आभार, जिन्होंने हमें इस मुकाम तक पहुँचाया. इस बीच 'शब्द-शिखर' ब्लॉग ने भी ढाई साल से ज्यादा का सफ़र पूरा कर लिया है.

........अभी तक प्रिंट-मिडिया में प्राप्त जानकारी के अनुसार 27 बार 'शब्द-शिखर' से जुडी पोस्टों की चर्चा हुई है. इनमें दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, जन सन्देश, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर शामिल हैं. इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार!

एक बार पुन: आप सभी के सहयोग, प्रोत्साहन के लिए आभार. यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!


(चित्र में : सपरिवार सेलुलर जेल के समक्ष)

-आकांक्षा यादव
अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर

सोमवार, 11 जुलाई 2011

विश्व जनसंख्या दिवस : बेटियों की टूटती 'आस्था'


आज विश्व जनसंख्या दिवस है. संयोगवश इस समय भारत में जनसंख्या का काम भी जोरों से चल रहा है. जनसंख्या के अंतरिम आंकडे आ चुके हैं, पर वास्तविक आंकड़े आने अभी भी शेष हैं. जनसंख्या सिर्फ कागजी न हो, बल्कि इससे लोगों के जीवन स्टार में भी सुधर आए, ऐसे में इसे इसे व्यापक और लोकप्रिय बनाने एवं लोगों से जोड़ने हेतु तमाम उपायों का सहारा लिया जाता है। माना जा रहा है कि वर्ष 2011 की जनगणना पर जितनी राशि और मानवीय संसाधन झोंके गए हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ। यह जनगणना सिर्फ मानव जाति की गणना नहीं करती बल्कि मानव के समृद्ध होते परिवेश एवं भौतिक संसाधनों को भी कवर करती है। भारत दुनिया के उन देशों में से है, जहाँ सर्वाधिक तीव्र गति से जनसंख्या बढ़ रही है। फिलहाल चीन के बाद हम दुनिया में दूसरी सर्वाधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र हैं। यह जनसंख्या ही भारत को दुनिया के सबसे बड़े बाजार के रूप में भी प्रतिष्ठित करती है। यही कारण है कि इससे जुड़े मुद्दे भी खूब ध्यान आकर्षित करते हैं।

वर्ष 2011 की जनसंख्या के प्रारम्भिक आंकड़े बता रहे हैं की भारत में लड़कियों का लिंगानुपात घटा है. हर किसी को बस बेटा चाहिए, बेटियां भले ही एवरेस्ट की चोटी को दस दिन में दो बार नाप दें, पर समाज की मानसिकता में घुसा हुआ है कि सृष्टि को चलाने के लिए बेटा ही जरूरी है. याद कीजिए भारत में एक अरबवें मानवीय जन्म को। राजधानी दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में 11 मई 2000 की सुबह 5 बजकर 5 मिनट पर आस्था नामक बच्ची के जन्म से उत्साहित देश के नीति-नियंताओं ने वायदों और घोषणाओं की झड़ी लगा दी थी। इनमें देश की तत्कालीन स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्री श्रीमती सुमित्रा महाजन, दिल्ली के सांसद व पूर्व मुख्यमंत्री श्री साहिब सिंह वर्मा के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के वरिष्ठ अधिकारीगण तक शामिल थे। इनमें बच्ची की मुफ्त शिक्षा, मुफ्त रेल यात्रा, मुफ्त मेडिकल सेवा से लेकर बच्ची के पिता को सरकारी नौकरी तक के वायदे शामिल थे। पर वक्त के साथ ही जैसे खिलौने टूट जाते है, इस एक अरबवें शिशु के प्रति किए गए सभी वायदे टूट गए। माता-पिता ने समझा था कि बिटिया अपने साथ सौभाग्य लेकर आई है, तभी तो इतने लोग उसे देखने व उसके लिए कुछ करने को लालायित हैं। शायद इसीलिए उसका नाम भी आस्था रखा। पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की इस एक अरबवीं बच्ची आस्था की किलकारियों को न जाने किसकी नजर गई कि आज 11 साल की हो जाने के बावजूद उसे कुछ नहीं मिला, सिवाय संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा वायदानुसार दी गई दो लाख रूपये की रकम।

वाकई यह देश का दुर्भाग्य ही है कि हमारे नीति-नियंता बड़े-बड़े वायदे और घोषणाएं तो करते हैं, पर उन पर कभी अमल नहीं करते। 'आस्था' तो एक उदाहरण मात्र है जो आज दिल्ली के नजफगढ़ के हीरा पार्क स्थित अपने पैतृक आवास में माता-पिता और बड़े भाई के साथ रहती है। दुर्भाग्यवश इस गली में पानी व सीवर लाइन सहित तमाम सुविधाओं का अभाव है। इन सबके बीच माता-पिता इस गरीबी में कुछ पैसे जुटाकर खरीदी गई सेकण्ड हैण्ड साईकिल ही आस्था की खुशियों का संबल है। उसके माता-पिता भी उस दिन को एक दु:स्वप्न मानकर भूल जाना चाहते हैं, जब इस एक अरबवीं बच्ची के जन्म के साथ ही नेताओं-अधिकारियों-मीडिया की चकाचैंध के बीच दुनिया ने आस्था को सर आखों पर बिठा लिया था। 11 मई 2011 को आस्था पूरे 11 साल की हो गई, पर उसकी सुध लेने की शायद ही किसी को फुर्सत हो !!

आज विश्व जनसंख्या दिवस है. हमारे कर्णधार इस बात का रोना रो रहे हैं कि देश में बच्चियों का घटता अनुपात भविष्य के लिए संकट पैदा कर सकता है, पर क्या वाकई इस ओर वे गंभीरता से सोचते हैं. 'आस्था' का मसला तो सिर्फ एक उदाहरण मात्र है. ऐसी न जाने कितने आस्थाएं इस देश में रोज टूटती हैं और फिर बिखर जाती हैं !!

शनिवार, 9 जुलाई 2011

'जनसत्ता' के बहाने प्रिंट-मीडिया में 'शब्द-शिखर' की 27वीं चर्चा


'शब्द शिखर' पर 1 जुलाई , 2011 को प्रस्तुत पोस्ट 'एक चवन्नी का जाना' को प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक अख़बार जनसत्ता के नियमित स्तंभ ‘समांतर’ में आज 09 जुलाई , 2011 को 'अब जो नहीं है' शीर्षक से स्थान दिया गया है. जनसत्ता में चौथी बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है और इससे पूर्व 'शब्द शिखर' पर 26 अप्रैल, 2011 को प्रस्तुत पोस्ट 'मानव ही बन गया है खतरा... ' को प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक अख़बार जनसत्ता के नियमित स्तंभ ‘समांतर’ में 09 मई, 2011 को 'अस्तित्व का संकट' शीर्षक से, 21 अक्तूबर, 2010 को प्रस्तुत पोस्ट 'कहाँ गईं वो तितलियाँ' को जनसत्ता के ‘समांतर’ स्तम्भ में 7 दिसंबर, 2010 को 'गुम होती तितली' शीर्षक एवं अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च, 2010) को प्रस्तुत पोस्ट 'महिला होने पर गर्व' को 12 मार्च, 2011 को 'किसका समाज' शीर्षक से स्थान दिया गया था. समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 27वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, जन सन्देश, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

एक चवन्नी का जाना...


चवन्नी 30 जून से इतिहास बन गई. पर जो लोग चवन्नी के साथ बड़े हुए हैं, क्या इसे भुला पायेंगें. एकन्नी-दुअन्नी-चवन्नी...न जाने इसको लेकर कितने मुहावरे हैं, मीठी यादें हैं. बचपन में यह चवन्नी ही बच्चों को चुप करने के लिए काफी होती थी, आखिर इतने में ही बिस्कुट-चाकलेट और मिठाइयाँ तक मिल जाती थीं. पर आज चवन्नी छोडिये पचास पैसे और एक रूपये का भी कोई मोल नहीं बचा. जब हम लोक स्कूल में पढ़ते थे तो किसी भी खेल-कूद प्रतियोगिता के लिए एक रूपये के सिक्के से टॉस किया जाता था और टास जीतने वाला उस एक रूपये से उस दौर में पूरे एक पैकेट ग्लूकोज बिस्किट खरीदकर अपनी टीम के सदस्यों को खिलाता था. एक रूपये का जेब-खर्च भी तब मायने रखता था, और आज भिखारी भी एक रूपये में नहीं मानता, चवन्नी-अठन्नी की तो बात ही दूर है. शादियों में दूल्हे की गाड़ी पर शगुन रूप में धान के लावे के साथ मिलाकर सिक्के फेंके जाते थे. बच्चों में यही क्रेज रहता था की किसने ज्यादा सिक्के बटोरे ? पर यह सब तो मानो, अब बाबा-आदम के ज़माने की बातें लगती हैं.

जब कृष्ण कुमार जी से मेरी शादी हुई तो एक दिन उन्होंने एक बड़ी सी पोटली मेरे सामने रखी. मैंने उत्सुकतावश खोला तो उसके ढेर सारे सिक्के थे. एक आने से लेकर न जाने किन-किन देशों के. पता चला कि ये बचपन से ही इन्हें एकत्र करने का शौक रखते हैं. इन सिक्कों की कीमत आज भी बाजार में काफी ज्यादा है, उस पर से मिलना तो दूभर ही है. बिटिया अक्षिता (पाखी) को बताया तो पहले चवन्नी शब्द ही सुनकर खूब हँसी, फिर चवन्नी दिखाने को कहा. जब किसी तरह चवन्नी मैनेज की तो बोली कि यह तो 25 पैसे हैं, इसे चवन्नी क्यों कहते हैं ? शायद नई पीढ़ी को आने का मतलब भी नहीं पता होगा, आखिर उनकी शुरुआत ही सैकड़ा से आरंभ होती है. जेब-खर्च भी भरी-भरकम हो गया है. गलती उनकी भी नहीं है, महंगाई जो न कराए.

चवन्नी की महिमा फिर भी कम नहीं हुई है. रिजर्व बैंक की माने तो पिछले वर्ष 31 मार्च, 2010 तक बाजार में पचास पैसे से कम मूल्य वाले कुल 54 अरब 73 करोड़ 80 लाख सिक्के प्रचलन में थे, जिनकी कुल कीमत 1,455 करोड़ रूपये मूल्य के बराबर है. बाजार में प्रचलित कुल सिक्कों का यह 54 फीसदी तक है. मतलब चवन्नी जैसे सिक्के भले ही प्रचलन से बाहर हो जाएँ, पर चवन्नी की वैल्यू बनी हुई है. अब तो चवन्नी एक तो ढूंढे नहीं मिलेगी, उस पर से संग्रहालय की वस्तु बन जाएगी. संग्राहक ज्यादा दाम देकर भी इसे अपने पास रखना चाहेंगें.

चवन्नी की महिमा अभी भी बरकरार है. चवन्नी के नाम पर कहावतें हैं, मुहावरें हैं, गालियां हैं, ब्लॉग हैं....पर बस नहीं है तो चवन्नी !!