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सोमवार, 18 जुलाई 2011

कहां खो गई दादा-दादी की कहानी


बचपन में स्कूल की छुट्टियों में ननिहाल जाने पर मेरी नानी हम सब बच्चों को अपने पास बिठाकर मजेदार कहानियां सुनाया करती थी। उनकी कहानियों का विषय राजा, राजकुमार, राजकुमारी व दुष्ट जादूगर हुआ करते थे। अकबर-बीरबल व विक्रम-बेताल के किस्से हमें अपने साथ बांधे रखते थे। कभी-कभार नानी हमें भारत विभाजन के दौरान पाकिस्तान से भारत आने के दौरान हुए मुश्किलों भरे सफर की जानकारी भी तपफसील से देती, जो उस समय हमारे लिए रोचक किस्सों से कम
नहीं होता था। आज नानी नहीं रही, लेकिन दिमाग पर जोर डालते ही उसके किस्से-कहानियां ताजा हो उठती हैं। मेरी तरह वे सभी लोग खुशनसीब होंगे जिन्हें बचपन में अपने दादा-दादी, नाना-नानी के साथ इस तरह की बैठकों का अनुभव होगा।

कुछ दशक पहले ही बच्चों में काॅमिक्स बेहद लोकप्रिय थीं। इन काॅमिक्स के पात्रों में पैफंटम, चाचा चैधरी, लम्बू-मोटू, राजन-इकबाल, पफौलादी सिंह, महाबली शाका, ताऊजी, चाचा-भतीजा, जादूगर मैंड्रक, बिल्लू, अंकुर, पिंकी, रमन, क्रुकबांड सरीखे तमाम पात्रा बच्चों को अपने ही परिवेश के प्रतीत होते थे। जो उनमें पफैंटसी के अलावा रोमांच, चतुराई उभारते हुए उनकी कल्पनाशक्ति विकसित करते थे। अमर चित्रकथा ने भारतीय संस्कृति पर काॅमिक रचकर बच्चों का अपार ज्ञानवर्धन किया। इतना ही नहीं किशोरों के लिए साहस, रोमांच व ज्ञान से भरपूर पाॅकेट बुक्स भी प्रकाशित की गई। अस्सी-नब्बे के दशक में पाॅकेट बुक्स का जादू भी बाल पाठकों के दिलोदिमाग पर छाया रहा। डायमंड, मनोज, राजा, शकुन, पवन, साधना पाॅकेट बुक्स के अलावा अन्य जाने-माने प्रकाशनों ने बच्चों के लिए भरपूर छोटे उपन्यास प्रकाशित किए। उस समय बच्चों में भी यह क्रेज रहता था कि उन्होंने अपने पसंदीदा पात्रों की पाॅकेट बुक्स पढ़ी या नहीं। बच्चे आपस में अदल-बदल कर अपनी पसंदीदा किताबें पढ़ने से नहीं चूकते थे।

बालरुचि के अनुरूप ही मधु मुस्कान, लोटपोट, पराग, टिंकल, नंदन, बालमेला, चंपक, चंदामामा, चकमक, हंसती दुनिया, बालहंस, बाल सेतु, बाल वाटिका, नन्हे सम्राट, देवपुत्र, लल्लू जगधर, बालक, सुमन सौरभ जैसी बाल-पत्रिकाएं भी प्रकाशित हुई, जिनमें से कुछ आज भी बाल पाठकों को लुभा रही हैं। सरकारी तौर पर भी नन्हें तारे, बाल वाणी जैसी बाल-पत्रिकाएं शुरू की गई जो काल कलवित हो गई। अलबत्ता प्रकाशन विभाग की बाल भारती व नेशनल बुक ट्रस्ट की पाठक मंच बुलेटिन आज भी नियमित प्रकाशित हो रही हैं। यदि केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारें बाल-साहित्य प्रकाशन व प्रोत्साहन की दिशा में गंभीरता से रुचि ले तो यह भावी नागरिकों के हित में एक अच्छा कदम होगा। दैनिक समाचार-पत्रों में भी अपने बाल-पाठकों को खास ख्याल रखते हुए प्रायः रविवारीय विशेषांक में बाल-साहित्य को प्रमुखता से स्थान दिया जाता था। परन्तु बाजारवाद के मौजूदा दौर में बाल साहित्य अब केवल औपचारिकता बनकर रह गया है तथा सृजनात्मक साहित्य के स्थान पर बच्चों को ज्यादातर इंटरनेट की सामग्री परोसी जा रही है। रोचक-मजेदार बाल कथाओं का तो अब अभाव हो चला है। यही नहीं बाल-साहित्यकार भी खुद को उपेक्षित महसूस करते हुए साहित्य की अन्य विधाओं की ओर उन्मुख होते जा रहे हैं। यह स्थिति बाल-साहित्य के लिए बेहद घातक है। दूसरी तरफ आज के व्यस्तता भरे समय में जहां भौतिकवाद ने रिश्तों में दूरियां बना दी हैं, वहीं टेलीविजन तथा कम्प्यूटर ने बचपन को एक तरह से लील लिया है। मनोरंजन के नाम पर बच्चों के पास वीडियो गेम, कम्प्यूटर, इंटरनेट, केबल टीवी से लेकर मोबाइल जैसे तमाम उपकरण भले ही आ गए हों पर इनमें से कोई भी उन्हें स्वस्थ मनोरंजन दे पाने में सक्षम नहीं। वैज्ञानिक शोधों से पता चला है कि इंटरनेट, टीवी व वीडियो गेम बच्चों में तनाव, हिंसा, कुंठा व मनोरोगों को जन्म दे रहा है। इन उपकरणों से जुड़े रहने वाले बच्चों की आंखों पर मोटे-मोटे चश्मे भी देखे जा सकते हैं। पश्चिमी संस्कृति से प्रेरित कार्टून पिफल्में व अन्य डब किए गए कार्यक्रम बाल सुलभ मन में अश्लीलता व विकारों के बीज बो रहे हैं। उनकी भाषा भी व्यवहार की तरह संस्कारविहीन होती जा रही है।

इस परिस्थिति में बच्चों में नैतिकता, शिष्टाचार, ईमानदारी सहित अन्य सद्गुणों के विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए जरूरी है कि हम सब बाल-साहित्य की प्रासंगिकता व उपादेयता को समझते हुए उसे बाल-जीवन में स्थान दें। बच्चों को संस्कारवान बनाने में गीताप्रेस-गोरखपुर का बाल साहित्य व अमर चित्राकथा बेजोड़ है। बाल साहित्यकारों को एक चुनौती की तरह भारतीय आधुनिक परिवेश के हिसाब से अपने साहित्य को विकसित करना चाहिए। अभिभावकों को भी बच्चों पर पढ़ाई का बोझ न लादते हुए कुछ समय स्वाध्याय के लिए प्रेरित करना चाहिए। साहित्य पठन के इन पलों में बच्चों का स्वस्थ मनोरंजन होने के साथ ही उनमें मानवीय गुण तो विकसित होंगे ही, एकाग्रता व शिक्षा के प्रति रूझान भी बढ़ेगा।

संदीप कपूर
-88/1395, बलदेव नगर
अंबाला सिटी-134007 (हरियाणा)

11 टिप्‍पणियां:

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

सुझाव अमूल्य हैं और उन पर अमल होना ही चाहिए.

Urmi ने कहा…

बहुत बढ़िया सुझाव है! शानदार प्रस्तुती!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

जीवन और जगत ने कहा…

बच्‍चों में पढ़ने की आदत डालने के लिए जरूरी है कि उसे अच्‍छी पुस्‍तकें दी जायें। साथ ही हम स्‍वयं भी पढ़ें। बच्‍चे हमसे ही देखकर सीखते हैं। महान यूनानी दार्शनिक प्‍लेटो ने कहा था कि 'अगर आप चाहते हैं कि बच्‍चा सुन्‍दर वस्‍तुओं का निर्माण करे, तो उसके चारों ओर सुन्‍दर वस्‍तुएं प्रस्‍तुत कीजिये।' मैं अपना ही एक उदाहरण देता हूँ। एक दिन मैं टीवी पर समाचार सुन रहा था। मेरा चार वर्षीय बेटा भी मेरे साथ टीवी देखने में मशगूल था। मैनें अपने बेटे से अपना होमवर्क करने को कहा। उसने जवाब दिया, ''आप भी तो टीवी देख रहे हैं।'' वह होमवर्क करने के लिए तभी राजी हुआ, जब मैं उसे दिखाने के लिए अपनी कोई किताब लेकर उसके साथ पढ़ने बैठ गया। मैं जितनी देर पढने का नाटक करता रहा, मेरा बेटा अपना होमवर्क करता रहा। हम जो करते हैं बच्‍चे उसी का अनुकरण करते हैं।

Maheshwari kaneri ने कहा…

अच्छा सुझाव है..उन पर अमल होना ही चाहिए
.अभिव्यंजना में आप का स्वागत है...आभार

Unknown ने कहा…

बेहद सटीक बात सटीक समय पर. आज जरूरत है बच्चों के समग्र विकाश की और पठन पाठन पर विशेष ध्यान देना बेहद जरूरी है अच्छा आलेख संदीप जी को बधाई आपकी खोजता को बधाई

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

सटीक आलेख.
---------
कल 20/07/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

सदा ने कहा…

बेहद सटीक एवं सार्थक प्रस्‍तुति ।

Manav Mehta 'मन' ने कहा…

bahut achchha lekh

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…

अति-महत्वपूर्ण पोस्ट...गौर करने लायक बात.

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…

अति-महत्वपूर्ण पोस्ट...गौर करने लायक बात.

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छा आलेख...उत्तम सुझाव!!!