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सोमवार, 19 नवंबर 2012

छठि मईया आई न दुअरिया



भारतीय संस्कृति में त्यौहार सिर्फ औपचारिक अनुष्ठान मात्रभर नहीं हैं, बल्कि जीवन का एक अभिन्न अंग हैं। त्यौहार जहाँ मानवीय जीवन में उमंग लाते हैं वहीं पर्यावरण संबंधी तमाम मुद्दों के प्रति भी किसी न किसी रूप में जागरूक करते हैं। सूर्य देवता के प्रकाश से सारा विश्व ऊर्जावान है और इनकी पूजा जनमानस को भी क्रियाशील, उर्जावान और जीवंत बनाती है। भारतीय संस्कृति में दीपावली के बाद कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाने वाला छठ पर्व मूलतः भगवान सूर्य को समर्पित है। माना जाता है कि अमावस्या के छठवें दिन ही अग्नि-सोम का समान भाव से मिलन हुआ तथा सूर्य की सातों प्रमुख किरणें संजीवनी वर्षाने लगी। इसी कारण इस दिन प्रातः आकाश में सूर्य रश्मियों से बनने वाली शक्ति प्रतिमा उपासना के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। वस्तुतः शक्ति उपासना में षष्ठी कात्यायिनी का स्वरूप है जिसकी पूजा नवरात्रि के छठवें दिन होती है। छठ के पावन पर्व पर सौभाग्य, सुख-समृद्धि व पुत्रों की सलामती के लिए प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्य नारायण की पूजा की जाती है। आदित्य हृदय स्तोत्र से स्तुति करते हैं, जिसमें बताया गया है कि ये ही भगवान सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरूण हैं तथा पितर आदि भी ये ही हैं। वैसे भी सूर्य समूचे सौर्यमण्डल के अधिष्ठाता हैं और पृथ्वी पर ऊर्जा व जीवन के स्रोत कहा जाता है कि सूर्य की साधना वाले इस पर्व में लोग अपनी चेतना को जागृत करते हैं और सूर्य से एकाकार होने की अनुभूति प्राप्त कर आनंदित होते है।

छठ पर्व के प्रारंभ के बारे में कई किंवदंतियाँ हैं। मान्यता है कि इस पर्व का उद्भव द्वापर युग में हुआ था। भगवान कृष्ण की सलाह पर सर्वप्रथम कुन्ती ने अपने पुत्र पाण्डवों के लिए छठ पर्व पर व्रत लिया था, ताकि पाण्डवों का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवाश कष्टमुक्त गुजरे। इस मान्यता को इस बात से भी बल मिलता है कि कुन्ती पुत्र कर्ण सूर्य का पुत्र था। इसी प्रकार जब पाण्डव जुए में अपना सब कुछ हार गए और विपत्ति में पड़ गये, तब द्रौपदी ने धौम्य ऋषि की सलाह पर छठ व्रत किया। इस व्रत से द्रौपदी की कामनाएं पूरी हुईं और पाण्डवों को उनका खोया राजपाट वापस मिला गया। ऐसी मान्यता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी सूर्य षष्ठी के दिन पुत्ररत्न की प्राप्ति के लिए सूर्य देवता की आराधना की थी, जिसके चलते उन्हें लव-कुश जैसे तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई। माँ गायत्री का जन्म भी सूर्य षष्ठी को ही माना जाता है। यही नहीं इसी दिन महर्षि विश्वामित्र के मुख से गायत्री मंत्र निकला था। एक अन्य मत के अनुसार छठ व्रत मूलतः नागकन्याओं से जुड़ा है। इसके अनुसार नागकन्याएं प्रतिवर्ष कश्यप ऋषि के आश्रम में कार्तिक षष्ठी को सूर्य देवता की पूजा करती थीं। संजोगवश एक बार च्यवन ऋषि की पत्नी सुकन्या भी वहाँ पहुँच गई, जिनके पति अक्सर अस्वस्थ रहते थे। नागकन्याओं की सलाह पर सुकन्या ने छठ व्रत उठाया और इसके चलते च्यवन ऋषि का शरीर स्वस्थ और सुन्दर हो गया।

छठ से जुड़ी एक अन्य प्रचलित मान्यता कर्तिकेय के जन्म से संबंधित है। मान्यता है कि भगवान शिव हिमवान की छोटी कन्या उमा के साथ पाणिग्रहण के उपरान्त रति-क्रीड़ा में मग्न हो गये। क्रीड़ा-विहार में सौ दिव्य वर्ष बीत जाने पर भी कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई। इतनी दीर्घावधि के पश्चात भगवान शिव के रूद्र तेज को सहन करेगा, इससे भयभीत होकर सभी देवगण उनकी प्रार्थना करने लगे- हे प्रभु।़ आप हम देवों पर कृपा करें और देवी उमा के साथ रति-क्रीड़ा से निवृत्त होकर तप में लीन हों । इस बीच निवृत क्रिया में सर्वोत्तम तेज स्खलित हो गया जिसे अग्नि ने अंगीकार किया। गंगा ने इस रूद्र तेज को हिमालय पर्वत के पाश्र्वभाग में स्थापित किया जो कान्तिवान बालक के रूप में प्रकट हुआ। इन्द्र, मरूत एवं समस्त देवताओं ने बालक को दूध पिलाने तथा लालन-पालन के लिए छह कृतिकाओं को नियुक्त किया। इन कृतिकाओं के कारण ही यह बालक कर्तिकेय के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये छह कृतिकाएं छठी मइया का प्रतीक मानी जाती हैं। तभी से महिलाएं तेजस्वी पुत्र और सुन्दर काया के लिए छठी मइया की पूजा करते हुए व्रत रखती हैं और पुरूष अरोग्यता और समृद्धि के लिए व्रत रखते हैं। बच्चों के जन्म की छठी रात को षष्ठी पूजन का विधान अभी समाज में है।
छठ पर्व की लोकप्रियता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि यह पूरे चार दिन तक जोश-खरोश के साथ निरंतर चलता है। पर्व के प्रारम्भिक चरण में प्रथम दिन व्रती स्नान कर के सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसे ‘नहाय खाय‘ कहा जाता है। वस्तुतः यह व्रत की तैयारी के लिए शरीर और मन के शु़िद्धकरण की प्रक्रिया होती है। मान्यता है कि स्वच्छता का ख्याल न रखने से छठी मइया रूष्ठ हो जाती हैं-कोपि-कोपि बोलेंली छठिय मइया, सुना महादेव/मोरा घाटे दुबिया उपरिज गइले, मकड़ी बसेढ़ लेले/हंसि-हंसि बोलेलें महादेव, सुना ए छठिय मइया/हम राउर दुबिया छिलाई देबों। इसी प्रकार घाटो पर वेदियाँ बनाते हुए महिलाएं गाती हैं-एक कवन देव पोखरा खनावेलें, पटिया बन्हावेलें रे/एक कवन देवी छठी के बरत कइलीं, कइसे जल जगाइबि रे/ए घाट मोरे छेके घटवरवा, दुअरे पियदवा लोग रे/एक कोरा मोरा छेक ले गनपति, कइसे जलजगइबि/एक रूपया त देहु घटवरवां, भइया ढेबुआ पियदवा लोग रे। प्रथम दिन सुबह सूर्य को जल देने के बाद ही कुछ खाया जाता है। लौकी की सब्जी, अरवा चावल और चने की दाल पारम्परिक भोजन के रूप में प्रसिद्ध है। दूसरे दिन छोटी छठ (खरना) या लोहण्डा व्रत होता है, जिसमें दिन भर निर्जला व्रत रखकर शाम को खीर रोटी और फल लिया जाता है। खीर नये चावल व नये गुड़ से बनायी जाती है, रोटी में शुद्ध देशी घी लगा होता है। इस दिन नमक का प्रयोग तक वर्जित होता है। व्रती नये वस्त्र धारण कर भोजन को केले के पत्ते पर रखकर पूजा करते हैं और फिर इसे खाकर ही व्रत खोलते हैं।

तीसरा दिन छठ पर्व में सबसे महत्वपूर्ण होता है। संध्या अघ्र्य में भोर का शुक्र तारा दिखने के पहले ही निर्जला व्रत शुरू हो जाता है। दिन भर महिलाएँ घरों में ठेकुआ, पूड़ी और खजूर से पकवान बनाती हैं। इस दौरान पुरूष घाटों की सजावट आदि में जुटते हैं। सूर्यास्त से दो घंटे पूर्व लोग सपरिवार घाट पर जमा हो जाते हैं। छठ पूजा के पारम्परिक गीत गाए जाते हैं और बच्चे आतिशबाजी छुड़ाते हैं। सूर्यदेव जब अस्ताचल की ओर जाते हैं तो महिलायें आधी कमर तक पानी में खड़े होकर अघ्र्य देती हैं। अघ्र्य देने के लिए सिरकी के सूप या बाँस की डलिया में पकवान, मिठाइयाँ, मौसमी फल, कच्ची हल्दी, सिंघाड़ा, सूथनी, गन्ना, नारियल इत्यादि रखकर सूर्यदेव को अर्पित किया जाता है और मन्नतें माँगी जाती हैं- बांस की बहंगिया लिये चले बलका बसवंा लचकत जाय/तोहरे शरणियां हे मोर बलकवा/हे दीनानाथ मोरे ललवा के द लंबी उमरिया। मन्नत पूरी होने पर कोसी भरना पड़ता है। जिसके लिए महिलाएँ घर आकर 5 अथवा 7 गन्ना खड़ा करके उसके पास 13 दीपक जलाती हैं। निर्जला व्रत जारी रहता है और रात भर घाट पर भजन-कीर्तन चलता है। छठ पर्व के अन्तिम एवं चैथे दिन सूर्योदय अघ्र्य एवं पारण में सूर्योदय के दो घंटे पहले से ही घाटों पर पूजन आरम्भ हो जाता है। सूर्य की प्रथम लालिमा दिखते ही ‘केलवा के पात पर उगलन सूरजमल‘, ‘उगी न उदित उगी यही अंगना‘ एवं ‘प्रातः दर्शन दीहिं ये छठी मइया‘ जैसे भजन गीतों के बीच सूर्यदेव को पुत्र, पति या ब्राह्मण द्वारा व्रती महिलाओं के हाथ से गाय के कच्चे दूध से अध्र्य दिलाया जाता है और सूर्य देवता की बहन माता छठ को विदाई दी जाती है। माना जाता है कि छठ मईया दो दिन पहले मायके आई थीं, जिन्हें पूजन-अर्चन के बाद ‘मोरे अंगना फिर अहिया ये छठी मईया‘ की भावना के साथ ससुराल भेज दिया जाता है। इसके बाद छठ मईया चैत माह में फिर मायके लौटती हैं। छठ मईया को ससुराल भेजने के बाद सभी लोग एक दूसरे को बधाई देते हैं और प्रसाद लेने के व्रती लोग व्रत का पारण करते हैं। व्रती की सेवा और व्रत की सामग्री का अपना अलग ही महत्व है। किसी गरीब को व्रत की सामग्री उपलब्ध कराने से व्रती के बराबर ही पुण्य मिलता है। इसी प्रकार यदि अपने घर के बगीचे में लगे फल को किसी व्रती को पूजा के लिए दिया जाता है, तो भी पुण्य मिलता है। यहाँ तक की व्रती की डलिया व्रत को वेदी तक पहुँचाकर, उसके कपड़े धुलकर भी पुण्य कमाया जाता है। व्रत रखने वाले घरों में माता की विदाई पर सफाई नहीं की जाती क्योंकि मान्यता है कि बेटी की विदाई या कथा आदि के बाद घरों में झाड़ू नहीं लगाई जाती।

मूलत: बिहार, झारखण्ड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी समाज का पर्व माना जाने वाला छठ अपनी लोकरंजकता और नगरीकरण के साथ गाँवों से शहर और विदेशों में पलायन के चलते न सिर्फ भारत के तमाम प्रान्तों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है बल्कि मारीशस, नेपाल, त्रिनिडाड, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, हालैण्ड, ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में भी भारतीय मूल के लोगों द्वारा अपनी छाप छोड़ रहा है- छठि मईया आई न दुअरिया। कहते हैं कि यह पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोक पर्व है जिसमें उगते सूर्य के साथ डूबते सूर्य की भी विधिवत आराधना की जाती है। यही नहीं इस पर्व में न तो कोई पुरोहिती, न कोई मठ-मंदिर, न कोई अवतारी पुरूष और न ही कोई शास्त्रीय कर्मकाण्ड होता है। आडम्बरों से दूर प्रत्यक्षतः प्रकृति के अवलंब सूर्य देवता को समर्पित एवं पवित्रता, निष्ठा व अशीम श्रद्धा को सहेजे छठ पर्व मूलतः महिलाओं का माना जाता है, जिन्हें पारम्परिक शब्दावली में ‘परबैतिन‘ कहा जाता है। पर छठ व्रत स्त्री-पुरूष दोनों ही रख सकते हैं। इस पर्व पर जब सब महिलाएं इकट्ठा होती हैं तो बरबस ही ये गीत गूँज उठते हैं- केलवा जे फरला घवध से, तो ऊपर सुगा मड़राय/तीरवा जो मरबो धनुष से, सुगा गिरे मुरछाय।

भारतीय संस्कृति में समाहित पर्व अन्ततः प्रकृति और मानव के बीच तादाद्म्य स्थापित करते हैं। जब छठ पर्व पर महिलाएँ गाती हैं- कौने कोखी लिहले जनम हे सूरज देव या मांगी ला हम वरदान हे गंगा मईया....... तो प्रकृति से लगाव खुलकर सामने आता है। इस दौरान लोक सहकार और मेल का जो अद्भुत नजारा देखने को मिलता है, वह पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों को भी कल्याणकारी भावना के तहत आगे बढ़ाता है। यह अनायास ही नहीं है कि छठ के दौरान बनने वाले प्रसाद हेतु मशीनों का प्रयोग वर्जित है और प्रसाद बनाने हेतु आम की सूखी लकडि़यों को जलावन रूप में प्रयोग किया जाता है, न कि कोयला या गैस का चूल्हा। वस्तुतः छठ पर्व सूर्य की ऊर्जा की महत्ता के साथ-साथ जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को भी संजोता है।

-आकांक्षा यादव

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

पावन पर्व दीपावली का

 पावन पर्व  दीपावली का,
दीपों की बारात लाए।
बम, पटाखे, फुलझड़ी संग,
खुशियों की सौगात लाए।

तोरण द्वार पर सजे अल्पना,
ज्योति का पुंज -हार लाए।
खील-लड्डू का चढ़े प्रसाद,
दिलों में सबके प्यार लाए।

है शुभ मंगलकारी पर्व यह,
इस दिन अयोध्या राम आए।
जल उठी दीपों की बाती,
पुलकित मन पैगाम लाए।

अमावस्या का तिमिर चीरकर,
रोशनी का उपहार लाए।
चारों तरफ सजे रंगोली,
लक्ष्मी-गणेश भी द्वार आए।

शनिवार, 3 नवंबर 2012

ब्लागिंग ने दिलाया अवध सम्मान : उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा सम्मानित

(उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने 1 नवम्बर, 2012 को हमें (आकांक्षा यादव-कृष्ण कुमार यादव) ‘न्यू मीडिया एवं ब्लागिंग’ में उत्कृष्टता के लिए एक भव्य कार्यक्रम में ‘अवध सम्मान’ से सम्मानित किया. जी न्यूज़ द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम का आयोजन ताज होटल, लखनऊ में किया गया था, जिसमें विभिन्न विधाओं में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को सम्मानित किया गया. इस पर प्रस्तुत है डा. विनय शर्मा की एक रिपोर्ट-


जीवन में कुछ करने की चाह हो तो रास्ते खुद-ब-खुद बन जाते हैं। हिन्दी-ब्लागिंग के क्षेत्र में ऐसा ही रास्ता अखि़्तयार किया दम्पति कृष्ण कुमार यादव व आकांक्षा यादव ने। उनके इस जूनून के कारण ही आज हिंदी ब्लागिंग को आधिकारिक तौर पर भी विधा के रूप में मान्यता मिलने लगी है. इसी क्रम में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने 1 नवम्बर, 2012 को इलाहाबाद परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएं कृष्ण कुमार यादव और उनकी पत्नी आकांक्षा यादव को ‘न्यू मीडिया एवं ब्लागिंग’ में उत्कृष्टता के लिए एक भव्य कार्यक्रम में ‘अवध सम्मान’ से सम्मानित किया गया. जी न्यूज़ द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम का आयोजन ताज होटल, लखनऊ में किया गया था, जिसमें विभिन्न विधाओं में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को सम्मानित किया गया, पर यह पहली बार हुआ जब किसी दम्पति को युगल रूप में यह प्रतिष्ठित सम्मान दिया गया. ब्लागर दम्पति को सम्मानित करते हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जहाँ न्यू मीडिया के रूप में ब्लागिंग की सराहना की, वहीँ कृष्ण कुमार यादव ने अपने संबोधन में उनसे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा दिए जा रहे सम्मानों में ‘ब्लागिंग’ को भी शामिल करने का अनुरोध किया. आकांक्षा यादव ने न्यू मीडिया और ब्लागिंग के माध्यम से भ्रूण-हत्या, नारी-उत्पीडन जैसे मुद्दों के प्रति सचेत करने की बात कही. अन्य सम्मानित लोगों में वरिष्ठ साहित्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी, चर्चित लोकगायिका मालिनी अवस्थी, ज्योतिषाचार्य पं. के. ए. दुबे पद्मेश, वरिष्ठ आई.एस. अधिकारी जय शंकर श्रीवास्तव इत्यादि प्रमुख रहे.

जीवन में एक-दूसरे का साथ निभाने की कसमें खा चुके कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव, साहित्य और ब्लागिंग में भी हमजोली बनकर उभरे हैं. कृष्ण कुमार यादव ब्लागिंग और हिन्दी-साहित्य में एक चर्चित नाम हैं, जिनकी 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । उनके जीवन पर एक पुस्तक ’बढ़ते चरण शिखर की ओर’ भी प्रकाशित हो चुकी है। आकांक्षा यादव भी नारी-सशक्तीकरण को लेकर प्रखरता से लिखती हैं और उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव ने वर्ष 2008 में ब्लाग जगत में कदम रखा और 5 साल के भीतर ही सपरिवार विभिन्न विषयों पर आधारित दसियों ब्लाग का संचालन-सम्पादन करके कई लोगों को ब्लागिंग की तरफ प्रवृत्त किया और अपनी साहित्यिक रचनाधर्मिता के साथ-साथ ब्लागिंग को भी नये आयाम दिये। कृष्ण कुमार यादव का ब्लॉग ‘शब्द-सृजन की ओर’ (http://www.kkyadav.blogspot.in/) जहाँ उनकी साहित्यिक रचनात्मकता और अन्य तमाम गतिविधियों से रूबरू करता है, वहीँ ‘डाकिया डाक लाया’ (http://dakbabu.blogspot.in/) के माध्यम से वे डाक-सेवाओं के अनूठे पहलुओं और अन्य तमाम जानकारियों को सहेजते हैं. आकांक्षा यादव अपने व्यक्तिगत ब्लॉग ‘शब्द-शिखर’ (http://shabdshikhar.blogspot.in/) पर साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों और विशेषत: नारी-सशक्तिकरण को लेकर काफी मुखर हैं.

इस दम्पति के ब्लागों को सिर्फ देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी भरपूर सराहना मिली। कृष्ण कुमार यादव के ब्लाग ’डाकिया डाक लाया’ को 98 देशों, ’शब्द सृजन की ओर’ को 75 देशों, आकांक्षा यादव के ब्लाग ’शब्द शिखर’ को 68 देशों में देखा-पढ़ा जा चुका है. सबसे रोचक तथ्य यह है कि यादव दम्पति ने अभी से अपनी सुपुत्री अक्षिता (पाखी) में भी ब्लागिंग को लेकर जूनून पैदा कर दिया है. पिछले वर्ष ब्लागिंग हेतु भारत सरकार द्वारा ’’राष्ट्रीय बाल पुरस्कार’’ से सम्मानित अक्षिता (पाखी) का ब्लाग ’पाखी की दुनिया' (http://pakhi-akshita.blogspot.in/)

बच्चों के साथ-साथ बड़ों में भी काफी लोकप्रिय है और इसे 98 देशों में देखा-पढ़ा जा चुका है।इसके अलावा इस ब्लागर दम्पति द्वारा ‘उत्सव के रंग’, ‘बाल-दुनिया’, ‘सप्तरंगी प्रेम’ इत्यादि ब्लॉगों का भी सञ्चालन किया जाता है.

इस अवसर पर उ.प्र. विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पाण्डेय, रीता बहुगुणा जोशी, प्रमोद तिवारी, केबिनेट मंत्री दुर्गा प्रसाद यादव, अनुप्रिया पटेल, मेयर दिनेश शर्मा सहित मंत्रिपरिषद के कई सदस्य, विधायक, कार्पोरेट और मीडिया से जुडी हस्तियाँ, प्रशासनिक अधिकारी, साहित्यकार, पत्रकार, कलाकर्मी व खिलाडी इत्यादि उपस्थित रहे. आभार ज्ञापन जी न्यूज उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड के संपादक वाशिन्द्र मिश्र ने किया.

-डा. विनय कुमार शर्मा
प्रधान संपादक-संचार बुलेटिन (अंतराष्ट्रीय शोध जर्नल)
448/119/76, कल्याणपुरी, ठाकुरगंज, चैक, लखनऊ-226003


गुरुवार, 1 नवंबर 2012

'तूफान' और 'महिलाएं'


आजकल 'सैंडी' और 'नीलम' की बड़ी चर्चा है. नाम की खूबसूरती पर मत जाइये,  ये वास्तव में तूफान हैं. हाल के अमेरिकी इतिहास के सबसे खतरनाक तूफान (हरिकेन) माने जाने वाले 'सैंडी' ने तबाही मचा रखी है तो भारत में 'नीलम' ने तबाही मचा रखी है. इससे पहले 'कटरीना' और 'इरीन' अमेरिका को भयाक्रांत चुके हैं। वहीं चक्रवाती तूफान 'नीलम' से पहले भारत में 'लैला' और 'आइला' तूफान कहर बरपा चुके हैं।.यहाँ पर एक बात गौर करने लायक है कि इन सभी तूफानों के नाम महिलाओं के नाम पर ही रखे गए हैं. तो क्या वैश्विक समाज नारी-शक्ति से इतना भयाक्रांत है कि तबाही मचाने वाले तूफानों के नाम खूबसूरत महिलाओं के नाम पर रखकर अपनी दमित इच्छा पूर्ति कर रहा है ? आस्ट्रेलियाई मौसम वैज्ञानिक क्लीमेंट वेग्री (1852 -1922 ) ने ट्रापिकल तूफानों को महिलाओं के नाम देने का चलन आरम्भ किया. इसी क्रम में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमेरिकी नौसेना के जवानों और मौसम विज्ञानियों ने तूफानों को अपनी प्रेमिकाओं और पत्नियों के नाम से पुकारा। 1951 में अन्तराष्ट्रीय फोनेटिक वर्णमाला के अस्तित्व में आने के बाद कुछ समय के लिए इसे तूफानों के नामकरण का आधार बनाया गया, पर 1953 में अमेरिका ने इस नामकरण को अस्वीकार करते हुए फिर से महिलाओं के नाम पर ही तूफानों के नामकरण की परंपरा को आगे बढाया.
70 के दशक में जब पूरे विश्व में महिलाएं नारी-सशक्तिकरण की ओर अग्रसर रही थीं और सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रही थीं, तब कहीं जाकर लोगों का ध्यान इस ओर गया कि मात्र महिलाओं के नाम पर खतरनाक तूफानों का नामकरण गलत है और इससे समाज में गलत सन्देश जाता है. 1978 में यह सुनिश्चित हुआ कि तूफानों के नामकरण हेतु पुरुष और महिला दोनों तरह के नामों का इस्तेमाल किया जायेगा और तदनुसार इस्टर्न नार्थ पैसिफिक स्टॉर्म लिस्ट में दोनों के नाम शामिल किये गए. 1979 में अटलांटिक और मैक्सिको की खाड़ी में उठने वाले तूफानों के नाम भी पुरुष और महिला दोनों के नाम पर रखे गए.भारतीय उपमहाद्वीप में यह चलन वर्ष 2004 से आरंभ हुआ।
1953 से अमेरिका का नेशनल हरिकेन सेंटर, ट्रापिकल तूफानों के नाम की घोषणा करता था पर अब तूफान का नामकरण विश्व मौसम संगठन (डब्ल्यूएमओ) और यूनाइटेड नेशंस इकोनामिक एंड सोशल कमीशन फार एशिया एंड पेसिफिक (ईएससीएपी) द्वारा प्रभाव में लाई गई प्रक्रिया के तहत होता है। वस्तुत : नाम रखे जाने से मौसम विशेषज्ञों की एक ही समय में किसी बेसिन पर एक से अधिक तूफानों के सक्रिय होने पर भ्रम की स्थिति भी दूर हो गई। हर साल विनाशकारी तूफानों के नाम बदल दिए जाते है और पुराने नामों की जगह नए रखे जाते हैं। इससे किसी गड़बड़ी या भ्रम की सम्भावना नहीं रह जाती. विश्व मौसम संगठन द्वारा हर साल छ: वर्षों के लिए नामों की छ: सूची बनाई जाती है. प्रत्येक सूची में २१ नाम होते हैं. ये सूचियाँ रोटेशन और पुनर्चक्रण सिद्धांत पर कार्य करती हैं. अर्थात हर सातवें वर्ष में विशिष्ट सूची दोबारा प्रयोग करने के लिए उपलब्ध होती है, पर इसमें यह ध्यान रखा जाता है की ऐसे तूफानों के नाम फिर से न रखें जाएँ जिनसे लोगों की संवेदना आहत होती हो, क्योंकि कुछेक तूफान काफी तबाही का मंजर ला चुके होते हैं और दुबारा उनका नाम इस्तेमाल करना लोगों की भावनाओं को भड़का सकता है. यही कारण है कि विश्व मौसम संगठन और यूनाइटेड नेशंस इकोनामिक एंड सोशल कमीशन फार एशिया एंड पेसिफिक साल में एक बार बैठक कर चक्रवाती तूफान की आशंका और उसका सामना करने के लिए कार्य योजना पर विचार-विमर्श करते हैं। तूफानों का नाम इनके शुरू होने की जगह के नजदीकी बेसिन की मॉनीटरिंग बॉडी की सीजनल लिस्ट के मुताबिक तय होता है। विश्व मौसम संगठन विभिन्न देशों के मौसम विभागों को तूफानों का नाम रखने की जिम्मेदारी सौंपता है, ताकि तूफानों की आसानी से पहचान की जा सके. इसी क्रम में मौसम वैज्ञानिकों ने आसानी से पहचान करने और तूफान के तंत्र का विश्लेषण करने के लिए उनके नाम रखने की परंपरा शुरु की । अब तूफानों के नाम विश्व मौसम संगठन द्वारा तैयार प्रक्रिया के अनुसार रखे जाते हैं । बंगाल की खाडी़ और अरब सागर के उपर बनने वाले तूफानों के नाम वर्ष 2004 से रखे जा रहे हैं. भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) क्षेत्रीय विशेषीकृत मौसम केद्र होने की वजह से भारत के अलावा सात अन्य देशों बंगलादेश, मालदीव, म्यांमार, पाकिस्तान, थाईलैंड एवं श्रीलंका को मौसम संबंधी परामर्श जारी करता है। आईएमडी ने इन देशों से भी तूफानों के लिए नाम सुझाने को कहा। इन देशों ने अंग्रेजी वर्णमाला के क्रम के अनुसार नामों की सूची दी है । पूर्वानुमान और चेतावनी जारी करने की खातिर विशिष्ट पहचान देने के उद्धेश्य से अब तक कुल 64 नाम सुझाए गए हैं, जिनमें से अब तक 24 का उपयोग किया जा चुका है । मसलन 'लैला' और 'नीलम' नाम नाम पाकिस्तान द्वारा सुझाया गया था ।
 
पर इस सच्चाई से तो नहीं नक्कारा जा सकता कि अब भी अधिकतर बड़े तूफानों के नाम महिलाओं के नाम पर ही पाए जाते हैं. 'सैंडी' नाम को भले ही मौसम विज्ञानी पुरुषवाचक कह रहे हों, पर यह नाम भी महिलाओं के ही करीब है. कई बार तो लगता है कि पुरुषवाचक आधार पर तूफानों के ऐसे नाम रखे जाते हैं, जिनसे महिलावाचक होने का भ्रम हो. नारी के लिए अक्सर कहा जाता है कि वह जब शांत होती है तो 'विनम्र व दयालु' होती है और जब रणचंडी का रूप धारण करती है तो 'तूफान' आते हैं, पर हमारे मौसम विज्ञानी अभी भी प्राय: हर खतरनाक तूफान का नामकरण महिलाओं के नाम पर ही करना चाहते हैं तो यह सोचनीय विषय है !!
-आकांक्षा यादव