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मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

ऐ नव वर्ष के प्रथम प्रभात

नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है,
खुशियों की बस इक चाहत है।

नया जोश, नया उल्लास,
खुशियाँ फैले, करे उजास।

नैतिकता के मूल्य गढ़ें,
अच्छी-अच्छी बातें पढें।

कोई भूखा पेट न सोए,
संपन्नता के बीज बोए।

ऐ नव वर्ष के प्रथम प्रभात,
दो सबको अच्छी सौगात।




शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा आकांक्षा यादव को 'भगवान बुद्ध राष्ट्रीय फेलोशिप सम्मान-2013'

भारतीय दलित साहित्य अकादमी ने युवा कवयित्री, साहित्यकार एवं अग्रणी महिला  ब्लागर आकांक्षा यादव को दिल्ली में 12-13 दिसम्बर, 2013 को आयोजित 29वें राष्ट्रीय दलित साहित्यकार सम्मेलन में सामाजिक समरसता सम्बन्धी लेखन, विशिष्ट कृतित्व एवं समृद्ध साहित्य-साधना और सामाजिक कार्यों में रचनात्मक योगदान हेतु ‘’भगवान बुद्ध राष्ट्रीय फेलोशिप सम्मान-2013‘‘ से सम्मानित किया। आकांक्षा यादव को इससे पूर्व विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक-सामाजिक संस्थानों द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता और प्रशासन के साथ-साथ सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु दर्जनाधिक  सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त हैं। 

गौरतलब है कि नारी विमर्श, बाल विमर्श एवं सामाजिक सरोकारों सम्बन्धी विमर्श में विशेष रूचि रखने वाली आकांक्षा यादव साहित्य, लेखन, ब्लागिंग व सोशल मीडिया के क्षेत्र में एक लम्बे समय से सक्रिय हैं। देश-विदेश की प्रायः अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और इंटरनेट पर वेब पत्रिकाओं व ब्लॉग पर आकांक्षा यादव की विभिन्न विधाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित होती रहती है। आकांक्षा यादव की 2 कृतियाँ ”चाँद पर पानी” (बालगीत संग्रह) एवं ”क्रांतियज्ञ: 1857-1947 की गाथा” प्रकाशित हैं।

भारतीय दलित साहित्य अकादमी की स्थापनावर्ष 1984 में बाबू जगजीवन राम द्वारा दलित साहित्य के संवर्धन  और प्रोत्साहन हेतु  की गयी थी। 

साभार:



युवा कवयित्री, साहित्यकार  आकांक्षा यादव  सम्मानित।
(पंजाब केसरी, 22 दिसंबर, 2013 )

आकांक्षा यादव को मिला ‘’भगवान बुद्ध राष्ट्रीय फेलोशिप सम्मान‘‘
(दैनिक जागरण,16  दिसंबर, 2013-वाराणसी संस्करण )


''भगवान बुद्ध राष्ट्रीय फेलोशिप सम्मान-2013'' से नवाजी गई आकांक्षा यादव 
( अमर उजाला, 17  दिसंबर, 2013-वाराणसी संस्करण )


आकांक्षा यादव क़ो मिला भारतीय दलित साहित्य अकादमी का सम्मान।
(जनसंदेश टाइम्स, 16 दिसंबर, 2013-वाराणसी संस्करण )


युवा कवयित्री  आकांक्षा यादव ‘’भगवान बुद्ध राष्ट्रीय फेलोशिप सम्मान‘‘ से सम्मानित।
(दैनिक आज, 16  दिसंबर, 2013-वाराणसी संस्करण )

दलित साहित्य अकादमी ने आकांक्षा यादव क़ो किया सम्मानित 
(अमृत प्रभात, 21 दिसंबर, 2013-इलाहाबाद संस्करण )
आकांक्षा यादव सम्मानित 
(अमर उजाला, 21 दिसंबर, 2013-इलाहाबाद संस्करण )


युवा कवयित्री आकांक्षा यादव को सम्मान 
(दैनिक जागरण, 21 दिसंबर, 2013-इलाहाबाद संस्करण )

आकांक्षा यादव क़ो मिला दलित साहित्य अकादमी  पुरस्कार 
(हिन्दुस्तान, 21 दिसंबर, 2013-इलाहाबाद संस्करण )

आकांक्षा यादव सम्मानित 
(जनसंदेश टाइम्स, 21 दिसंबर, 2013-इलाहाबाद संस्करण )

Bhartiya Dalit Sahitya Akademi felicitates Akanksha Yadav
(Northern India Patrika, 22 Dec. 2013)



Dalit Akademi felicitates blogger Akanksha Yadav
(Times of India, 22 Dec. 2013)




सोमवार, 16 दिसंबर 2013

'निर्भया' के एक साल बाद, एक सवाल

चाहे उसे निर्भया कहिये या दामिनी या चाहे जो भी नाम रख लीजिए। या फिर भंवरी देवी,  प्रिदर्शिनी मट्टू या  नैना साहनी। या ऐसे ही वो तमाम अनगिनत नाम जो देश के कोने-कोने में रोज किसी न किसी रूप में यौनिक हिंसा या विभत्सतता की शिकार होती हैं … यह एक लम्बी सूची  हो सकती है। पर सवाल अभी भी वहीँ है कि क्या आज समाज में नारी पूर्णतया सुरक्षित है ?  क्या तमाम राजनैतिक एवं प्रशासनिक व पुलिस सिस्टम के आश्वासनों, न्यायिक सक्रियता, एनजीओ और  सामाजिक संगठनों के प्रदर्शन, प्रिंट मीडिया के रँगे गए पूरे पन्ने,  न्यूज चैनल्स की  ब्रेकिंग न्यूज एवम कैंडल मार्च  जैसी कवायदें भारत देश और यहाँ आने वाली अन्य देश कि महिलाओं को यह आश्वस्त कर सकते हैं कि महिलाएँ अब इस देश में सुरक्षित हैं ? क्या वाकई 'मानसिकता' सिस्टम पर हावी है या यह हमारा दोहरा चरित्र है कि हम कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं.… निर्भया की  मौत के एक साल बाद भी यह सवाल अभी भी वहीँ खड़ा है।  अभी भी निर्भया और उन  जैसी तमाम आत्माएँ हमसे यही सवाल पूछ रही हैं कि क्या हम  फिर से मानव योनि में जन्म लें या यूँ ही हमारी आत्मा भटकती रहे ? उन्हें अभी भी इंतजार है उस दिन का जब कोई लड़की घर में, सड़क पर या खेतों में  यूँ ही  रेप का शिकार नहीं होगी और कह सकेगी कि यह मेरा देश है, यहाँ मेरे लोग हैं और मैं यहाँ पर पूर्णतया सुरक्षित हूँ .....!!  

- आकांक्षा यादव 

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

11-12-13

11-12-13  यह तारीख तो बड़ी अनूठी और रोचक है। ऐसे अनूठे दिन विरले ही आते हैं। तमाम लोग इस दिन को अपने जीवन से जोड़ने के लिए प्लान कर रहे हैं। कोई इस दिन विवाह के बंधन में बंधकर इस दिन को ता-जिंदगी याद रखना चाहता है तो कोई इस दिन अपने बच्चे को संसार में आना देखना चाहता है ....ऐसी ही तमाम अनूठी योजनाएं कइयों के मन में चल रही हैं। कोई इस दिन को रोचक बनाना चाहता है, कोई यादों में संजोना चाहता है, कोई ऐतिहासिक बनाना चाहता है। आप भी कुछ सोच रहे हैं क्या ...!!

11-12-13 तब और भी रोचक हो जायेगा, जब इस दिन समय होगा 14 :15 :16.




शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

महिलाओं से इतना डर क्यों


महिलाओं से इतना डर क्यों लगने लगा है इस देश के सम्प्रभुओं को?  फारुख अब्दुल्ला साहब अपना दुःख बयां कर रहे हैं, कि महिलाओं से इतना डर लगने लगा है कि उन्हें पीए बनाने से पहले भी सोचें ?  जस्टिस गांगुली से जुड़ा सवाल पूछे जाने पर जवाब देते हुए फारुख अब्दुल्ला ने कहा कि अब लड़कियों से बात करने में भी डर लगता है, और हालत ये हो गई है कि अब हम लोग महिला पीए भी नहीं रखेंगे। क्या पता कब जेल जाना पड़ जाए। फारुख जी तो सिर्फ किसी के बहाने बयान दे रहे हैं, पर शायद यही आवाज़ राजनेताओं से लेकर संत, पत्रकार, जज, अधिकारी तक अपने मन में दबा कर बैठे हैं.…सवाल है कि आखिर क्यों ? 

लड़कियाँ/महिलाएं खुलकर विरोध करने लगीं कि कैसे उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया, कैसे उनके सीनियर्स ने  उनका फायदा उठाया तो कुछेक लोग जेल की  सलाखों के पीछे पहुँच गए और कुछ लोग कभी भी जेल जाने का इंतज़ार कर रहे हैं.…। आखिर ये सम्प्रभु लोग यह क्यों नहीं सोचते कि महिलाओं का अपना भी स्वतंत्र अस्तित्व है, सम्मान है, निजता है, आप उसके साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते। 

महिलाएं कोई गूंगी गुड़िया नहीं हैं, जिसे जहाँ चाहें फिट कर दें. उनमें भी स्पंदन होता है, चीजों का विरोध होता है, उन्हें आप लम्बे समय तक दबा कर नहीं रख सकते। आखिर, अपनी मानसिकता बदलने की  बजाय यह कहना कि हम महिलाओं के साथ काम नहीं कर सकते, उनसे डर लगता है .... कभी इसे महिलाओं के भी एंगल से सोचिए ?? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किन विपरीत परिस्थितियों में महिलाओं ने समाज और व्यवस्था में अपना स्थान बनाया है और आज यदि उसी महिला से लोग डरने की  बात कर रहे हैं तो यह महिलाओं से नहीं बल्कि खुद से डरना है, क्योंकि शायद आपका अपने ऊपर नियंत्रण ही नहीं है. 

आखिर, सम्प्रभु लोग यह क्यों सोचते हैं कि महिलाएं उनकी पीए बनें, बॉस नहीं। कहीं न कहीं यह दोहरापन भी  इन सबकी जड़ में है. यदि लोग यह  सोचते हैं कि महिलाओं के साथ रेप होता रहे, छेड़छाड़ होती रहे और आप कैंडल जलाकर सदभावना और श्रद्धांजलि अर्पित करते रहेंगे तो इस ग़लतफ़हमी को निकाल डालिए। महिलाओं की सौम्यता को उनकी कमजोरी नहीं समझिये, नहीं तो रणचंडी बनने में कितनी देरी लगती है. फिर बड़ा से बड़ा अपने को भगवान समझने वाला संत और बड़े से बड़े लोगों की तहलका मचाकर बखिया उघेड़ने वाले भी अर्श से फर्श पर आ जाते हैं !!

- आकांक्षा यादव @ www.shabdshikhar.blogspot.com/ 

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

आज ही तो इक बंधन में बंधे थे हम

28 नवम्बर का दिन हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है. आखिर इसी दिन हमारी शादी जो हुई थी.  28 नवम्बर, 2004 (रविवार) को हम कृष्ण कुमार जी के साथ जीवन के इस अनमोल पवित्र बंधन में बंधे थे. आज हमारी शादी के नौ साल पूरे हो गए। वक़्त कितनी तेजी से करवटें बदलता रहा, पता ही नहीं चला। कहते हैं समायोजन निश्चय ही सुखी वैवाहिक जीवन का आधार होता है और हमारे जीवन में भी यही पारस्परिक भाव है. फेसबुक और  पर तमाम मित्रों ने इस शुभ दिन पर हमें बधाइयाँ और शुभकामनायें दी हैं, उन सभी का इस स्नेह के लिए आभार। चलते-चलते डा लाल रत्नाकर जी की  कुछेक पंक्तियाँ और चित्र :



आपके सुखद, सौभाग्यशाली, सुरुचि संपन्न एवं साहित्य समृद्ध जोड़ी के नव वर्ष के पूर्ण होने पर मेरी बहुतेरी हार्दिक शुभ कामनाएं स्वीकारें, आपका यही माधुर्य हमेशा प्रवाहित होता रहे, "न जाने कितने सिविल सर्विसेज  के लोग अवाम से अलग अपनी दुनिया बना लेते हैं'' लेकिन जो अवाम के मध्य अपना माधुर्य बिखेरते हैं उससे उन्हें तो ख़ुशी मिलती ही है साथ ही साथ जन सामान्य भी गौरवान्वित और प्रसन्न होता है. एक कलाकार के नाते हमेशा आपकी भावनाएं हमें उत्साहित करती हैं, उम्र में आधिक होने के बावजूद हमने हमेशा कई बातें सीखने, वरतने आदि का प्रयास किया है. आज मुझे और प्रसन्नता है कि 'आकांक्षा' विगत नव वर्षों से आपकी 'संगती' में निरंतर आपके साहित्यिक सहयात्री के रूप में खड़ी रही हैं. मैं अपनी कुछ रेखाएं आपको इस अवसर पर 'भेंट' करता हूँ.


रविवार, 24 नवंबर 2013

वहीदा रहमान को फ़िल्म जगत का पहला शताब्दी पुरस्कार

प्रसिद्ध अभिनेत्री वहीदा रहमान को पुणे में  भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव :आईएफएफआई: के उद्घाटन समारोह में 20  नवम्बर को  ‘साल के भारतीय फिल्म शख्सयित’ के पहले शताब्दी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. सम्मान दिए जाते समय दर्शक दीर्घा में मौजूद लोगों ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया. अभिनेत्री रानी मुखर्जी ने 77 वर्षीय अभिनेत्री को भारतीय सिनेमा को दिए गए उनके अद्वितीय योगदान के लिए मंच पर सम्मानित किया.77 वर्षीय अभिनेत्री वहीदा रहमान को ‘गाइड’ और ‘साहब बीबी और गुलाम’ जैसी फिल्मों में शानदार अभिनय के लिए जाना जाता है. वहीदा रहमान को वर्ष 1972 में पदमश्री और वर्ष 2011 में पदम भूषण से अलंकृत किया गया था. वहीदा रहमान को यह पुरस्कार सिनेमा में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया जा रहा है. पांच सदस्यीय ज्यूरी ने इस पुरस्कार हेतु सर्वसम्मति से वहीदा रहमान के नाम का चयन किया. 

गौरतलब है कि भारत सरकार ने भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में इस पुरस्कार का गठन किया है. इस सम्मान के तहत एक प्रशस्ति पत्र, एक प्रमाण पत्र, एक पदक, एक शाल और 10 लाख रुपये का नकद पुरस्कार प्रदान किया जाता है. वर्ष 2013 से यह पुरस्कार भारतीय सिनेमा में योगदान के लिए फिल्मी दुनिया की हस्तियों को प्रत्येक वर्ष दिया जाना है. विदित हो कि भारतीय सिनेमा ने अपने स्थापना के 100 वर्ष 3 मई 2013 को पूरे किए, इसी दिन वर्ष 1913 में दादा साहेब फाल्के ने भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र को रिलीज किया था. 

वहीदा ने कहा कि वह यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाली पहली व्यक्ति बनकर बहुत खुश हैं. पुरस्कार पाने के बाद भावुक हुई वहीदा ने कहा, ‘‘मुझे इतना बड़ा सम्मान पाकर बहुत अच्छा लग रहा है. मैं निर्णायक मंडल का अभार व्यक्त करना चाहूंगी जिन्होंने मेरा नाम दिया. मैं उन सभी लोगों को धन्यवाद देना चाहूंगी जिनके साथ अब तक मैंने काम किया है. मेरे निर्देशक, निर्माता, मेकअप आर्टिस्ट, टेक्नीशियन. मेरी अदभुत यात्रा के लिए आपका शुक्रिया.’’ वहीदा ने ‘प्यासा’, ‘गाइड’, ‘कागज के फूल’ और ‘साहब बीवी और गुलाम’ जैसी कई चर्चित फिल्मों में यादगार भूमिकाएं निभायी हैं. उन्हें एक प्रशस्ति पत्र, एक प्रमाण पत्र, एक पदक :रजत मयूर:, शॉल और 10 लाख रपए नकद देकर सम्मानित किया गया.

एक बैंक महिलाओं का ...

महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए सरकारें तमाम कदम उठाती रही हैं। इसी क्रम में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 19 नवम्बर को देश की पहली महिला प्रधानमंत्री स्व इंदिरा गाँधी के  96वें जन्मदिन पर  मुम्बई में देश के प्रथम महिला बैंक 'भारतीय महिला बैंक' का उद्घाटन किया। बैंक का उद्घाटन मुंबई के नरीमन पॉइंट पर एयर इंडिया के भवन में हुआ। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस मौके पर कहा कि इससे महिला सशक्तिकरण के अलावा उनके सामाजिक विकास को भी बढ़ावा मिलेगा। मुंबई, लखनऊ समेत सात शहरों में भारतीय महिला बैंक [बीएमबी] की शाखाओं ने मंगलवार से ही कामकाज शुरू कर दिया। वैसे, इस बैंक में पुरुष भी खाता खुलवा सकेंगे मगर कर्ज वितरण सहित सभी सुविधाओं और योजनाओं में महिलाओं को ही प्राथमिकता दी जाएगी। इसमें महिला व पुरुष दोनों ही खाताधारी होंगे, लेकिन बैंक से सभी तरह के लोन लेने की सुविधा सिर्फ महिलाओं को मिलेगी। इसके अलावा उन्हें खासतौर पर फिक्सड डिपॉजिट व लोन स्कीम उपलब्ध कराई जाएंगी।

महिला सशक्तिकरण, भारत का सशक्तिकरण पंच लाइन के साथ शुरू हुआ  भारतीय महिला बैंक  न सिर्फ शहरी क्षेत्र में महिला उद्यमिता को बढ़ावा देगा, बल्कि समाज के कमजोर वर्ग की महिलाओं को कम ब्याज दर पर कर्ज देकर उन्हें आर्थिक रूप से स्वाबलंबी बनाने पर ध्यान देगा। इस सरकारी बैंक की खासियत यह भी है कि इसके आठ सदस्यीय निदेशक मंडल में महिलाओं को ही जगह दी गई है। पंजाब नेशनल बैंक की कार्यकारी निदेशक रह चुकी ऊषा अनंतसुब्रमण्यम को बैंक का अध्यक्ष बनाया गया है। बैंक के बोर्ड में चेयरपर्सन के अलावा  राजस्थान के एक गांव की सरपंच छवि राजावत, नुपुर मित्रा, प्रिया कुमार, रेणुका रामनाथ और गोदरेज की तान्या दुबाश को शामिल किया गया है। भारतीय महिला बैंक विदेशों में भी ब्रांच खोली जाएगी। अभी विभिन्न पीएसयू बैंक की महिलाकर्मी है स्टाफ मेंबर।जिन अन्य शहरों में इसकी शाखाएं खुली हैं उनमें कोलकाता, गुवाहाटी, अहमदाबाद, चेन्नई और बेंगलूर भी शामिल हैं।

वित्त मंत्री पी चिदंबरम के मुताबिक यह पहला सरकारी बैंक है जिसके बोर्ड में सिर्फ महिलाएं होंगी। कर्मचारियों में भी 70 फीसद महिलाएं ही होंगी। चिदंबरम ने चालू वित्त वर्ष का बजट पेश करते हुए महिला बैंक शुरू करने की घोषणा की थी। इसका पूंजी आधार 1,000 करोड़ रुपये का रखा गया है। अगले साल मार्च तक बैंक के शाखाओं की संख्या बढ़कर 25 कर दी जाएगी।
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इस अवसर पर भारतीय महिला बैंक की अध्यक्ष  उषा अनंतसुब्रमण्यम ने भारतीय महिला बैंक को लेकर उठ रहे  तमाम सवालों के जवाब भी दिए। 

-लगभग सभी बैंक महिलाओं के लिए विशेष शाखा से लेकर स्पेशल प्रॉडक्ट महिलाओं के लिए पहले ही लेकर आ चुके हैं। ऐसे में महिला बैंक उनसे अलग कैसे दिखाई देगा?

हम पेन इंडिया से ऑपरेशन स्टार्ट कर रहे हैं। हम शुरू से ही लोन देना व डिपॉजिट स्वीकार करना शुरू कर रहे हैं और वो भी कई फायदों के साथ।

-अगर लोन की बात करें तो कौन से प्रॉडक्ट महिलाओं के लिए सुटेबल हैं?

बैंक हाई-नेटवर्थ से लेकर मीडिल क्लास व लो-इनकम ग्रुप की महिलाओं के साथ काम कर रहा है। हमारा जोर उस इस स्किल डिवेलपमेंट को फंड करने का है जो इकॉनमिक एक्टिविटी को हेल्प करे। हम ऐसे डे-केयर सेंटर को सेट-अप करने के लिए क्रेडिट देंगे और संगठित कैटरिंग सर्विसेज के लिए भी।-

-आपको अन्य बैंकों से काफी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा। ऐसे में आप बिजनेस को कैसे आगे लेकर जाएंगी?

हमारा सेट-अप ही सबसे अलग है। यहां आपको पैसा जमा करवाना है या लोन लेना है तो सीधा ब्रांच में जाकर बहुत ही सिंपल तरह से अपना काम कर सकते हैं। ऑपरेट करने में इतना सरल है कि महिलाएं अपनी बैंकिंग जरूरतों के लिए इसे ही प्राथमिकता देगीं। हमारी आधी आबादी महिलाएं हैं और उनके फायदे के लिए खोला गया बैंक ग्रोथ की तरफ ही जाएगा। समय पर क्रेडिट व सही प्रॉडक्ट हमें लीड दिलाएगा।

-आपने शुरूआत मेट्रो से क्यों की? जबकि फाइनैंशल इन्कलूजन की ज्यादा जरूरत गांवों में है?

हम मेट्रो व अर्बन सेंटर में भी हैं। मार्च 2014 तक हम रूरल एरिया में भी एंटर होंगे। 25 पर्सेंट बैंक ऐसे एरिया में ही होंगे।


सेविंग अकाउंट पर इंटरेस्ट रेट:

एक लाख रुपये पर 4.5 पर्सेंट इंटरेस्ट रेट

एक लाख रुपये से ज्यादा पर 5 पर्सेंट का इटरेस्ट रेट

स्पेशल लोन प्रॉडक्ट:

हाइजनिक क्लास 1
डे-केयर सेंटर
एफिसिएंट किचन
केटरिंग सर्विस

बैंक की कुछ और खासियतें:

स्टाफ होगा प्रीडोमिनेंटली महिलाओं का।
सिक्यूरिटी स्टाफ व अन्य कुछ सेवाओं के अलावा पूरा स्टाफ महिलाओं का होगा।
यहां पुरुष भी बैंकिंग जरूरतों की लिए सेवाएं ले सकेंगे।
तीन साल के लिए 125 कर्मचारी

-जेंडर समानता के लिए कैसे अलग है यह बैंक:

लोन सस्ती दरों पर उपलब्ध होंगे। महिलाओं को छोटे-छोटे लोन अमाउंट बिना कोलेट्रल के ही मिलेगा। महिलाओं के लिए स्पेशल प्रोडक्ट तो हैं ही। महिलाओं के लिए जॉब के अवसर पैदा कर उन्हें एम्पॉवर करना, महिलाओं की फाइनैंशल नीड्स को डील करने के लिए स्पेशल सुविधाएं दी जा रही हैं।


सोमवार, 18 नवंबर 2013

व्रिदोहियों में एकमात्र मर्द रानी लक्ष्मीबाई

बुंदेले हरबोलों  के मुँह हमने सुनी कहानी थी. 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी.

‘स्त्रियों की दुनिया घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करती रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं के बिना स्वाधीनता की दास्तान अधूरी है, जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिया। कुल बाईस वर्ष से कुछ कम ही उम्र में रानी ने वीरगति पायी थी | इस अल्प जीवन में रानी का अदम्य साहस उन्हें भारतीयों के दिलों पर युगों के लिए अमर कर गया | यह सत्य है कि तत्कालीन रजवाडों ने उनका साथ नहीं दिया, पर उनके बिना भी उन्होंने अंग्रेजी तेवरों को चुनौती देते हुए कहा कि ‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।” रानी ने अपने अधिकार के लिए संघर्ष किया और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा हैं | तभी तो उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा- ‘‘यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो व्रिदोहियों में एकमात्र मर्द थी।” 


झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का यह दुर्लभ फोटो वर्ष 1850 में कोलकाता में रहने वाले अंग्रेज फोटोग्राफर जॉनस्टोन एंड हॉटमैन ने खींचा था। इस फोटो को 19 अगस्त, 2009 को भोपाल में आयोजित विश्व फोटोग्राफी प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया था। यह चित्र अहमदाबाद के एक पुरातत्व महत्व की वस्तुओं के संग्रहकर्ता अमित अम्बालाल ने भेजा था। माना जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई का यही एकमात्र फोटोग्राफ उपलब्ध है.

रानी लक्ष्मीबाई को जयंती (19 नवम्बर) पर शत-शत नमन !! 


रविवार, 3 नवंबर 2013

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना



जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

दीपावली पर  (पद्मभूषण) गोपालदास नीरज जी का एक गीत साभार।

दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं। झिलमिलाते दीपों की आभा से प्रकाशित ये दीपोत्सव आपके जीवन में धन, धान्‍य, सुख और सम़द्वि  लेकर आये। दीप मल्लिका दीपावली हर व्यक्ति, प्राणी, परिवार, समाज, राष्ट्र और समग्र विश्व के लिए सुख, शांति, सम़द्वि व धन वैभव दायक हो। इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ !!

दीपावली पर्व पर आप सभी को शुभकामनाएँ। दीपावली दीये का त्यौहार है न कि पटाखों का। अत: दीपावली पर दीये जलाकर पर्यावरण को स्वच्छ रखें, न कि पटाखों और आतिशबाजी द्वारा इसे प्रदूषित करें।

 -आकांक्षा यादव 

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

एलीनोर कैटन : सबसे युवा बुकर पुरस्कार विजेता

प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती। यह बात न्यूजीलैंड की 28 वर्षीय लेखिका एलिनोर कैटन पर पूरी तरह लागू  होती है, जिन्होंने अपने उपन्यास 'द लूमिनरीज़' के लिए सबसे कम उम्र में मैन बुकर पुरस्कार जीतकर एक इतिहास रच दिया है।

एलिनोर कैटन को उनके उपन्यास द लुमिनरीज के लिए वर्ष 2013 का मैन बुकर पुरस्कार दिया गया है। कैटन बुकर पुरस्कारों के 45 साल के इतिहास में पुरस्कार पाने वाली सबसे कम उम्र की लेखिका हैं। कनाडा में जन्मी कैटन न्यूज़ीलैंड में पली-बढ़ी हैं और वे मैन बुकर पुरस्कार जीतने वाली न्यूज़ीलैंड की दूसरी लेखक हैं.

यही नहीं, एलिनोर कैटन के खाते में एक और भी उपलब्धि जुड़ गई है। दरअसल बुकर पुरस्कारों के 45 साल के इतिहास में कैटन का 832 पेज का उपन्यास ये पुरस्कार जीतने वाली सबसे लंबी कृति भी बन गया है। उन्होंने ये उपन्यास उन्नीसवीं सदी की सोने की खानों पर लिखा है। कैटन ने यह उपन्यास 25 साल की उम्र में लिखना शुरू किया था। गौरतलब है कि बुकर  पुरस्कार के साथ पचास हज़ार पाउंड की इनामी राशि भी दी जाती है.

बकौल जूरी के मुखिया रॉबर्ट मैकफार्लेन- ''द लुमिनरीज एक शानदार उपन्यास है, इसकी संरचना अद्भुत रूप से जटिल है, कथा शैली आपको बांधे रखती है और लालच और सोना का वर्णन जादुई है।'' रॉबर्ट मैकफ़ारलेन ने कहा, "यह एक चमकदार कार्य है जो लंबा हुए बिना विशाल काम है....आप इसे पढ़ना शुरू करते हैं और आपको लगने लगता है कि आप एक दैत्य की पकड़ में हैं. इसका हर हिस्सा पिछले हिस्से की तुलना में ठीक आधा लंबा है."

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

"लघुकथाओं की मल्लिका" एलीस मुनरो

महिलाएँ आज जीवन की हर ऊंचाई को छू रही है। दुनिया भर में महिलाएं अपनी श्रेष्ठता का परचम फहरा रही हैं। तभी तो  दुनिया भर के तमाम सम्मान नारी के आँचल में समाये हैं, इन्हीं में से नोबेल सम्मान भी है। अभी तक 44  महिलाओं को नोबेल पुरस्कार मिला है और उनमें से 13 साहित्य के क्षेत्र में। 

 इस बार वर्ष 2013 के साहित्य के प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार के लिए "लघुकथाओं की मल्लिका" के नाम से विख्यात कनाडा की लेखिका एलिस मुनरो को चुना गया है। मुनरो साहित्य का नोबेल जीतने वाली 13 वीं महिला हैं, जबकि किसी भी क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार पाने वाली 44वीं महिला हैं। अनूठी कथाकार और मानवीय संवेदनाओं की मर्मज्ञ कलमकार एलीस मुनरो को यह पुरस्कार मानवीय परिस्थितियों की कमजोरियों पर आधारित लघु कथाओं  के लिए प्राप्त हुआ. वर्ष 1901 में शुरु हुए नोबेल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित होने वाली एलिस पहली कनाडाई नागरिक हैं. स्वीडिश अकादमी ने एलिस (82वर्ष) को समकालीन लघु कहानी का मास्टर बताकर सम्मानित किया. अकादमी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि छोटे शहरों के माहौल में होती है जहां सामाजिक स्वीकार्य अस्तित्व के लिए संघर्ष के कारण अक्सर रिश्तों में तनाव और नैतिक विवाद होता है.

कनाडा के विंघम में 10 जुलाई 1931 में जन्मी मुनरो ने 1950 में पत्रिकाओं में लिखना शरू किया था। साढ़े बारह लाख अमेरिकी डालर के पुरस्कार की घोषणा करते हुए स्वीडिश अकादमी ने मुनरो के लिए कहा, "कुछ आलोचक उन्हें कनाडाई चेखव भी मानते हैं।'' अंग्रेजी के अलावा मुनरो फ्रेंच, स्वीडिश, स्पेनिश और जर्मन में भी लिखती रही हैं। ग्लैमर और मीडिया से दूरी पसंद मुनरो ने 2009 में बताया था कि उनके दिल की बाईपास सर्जरी भी हुई है और वह कैंसर से भी पीडित रही हैं। लेकिन इस क्रांतिकारी लेखिका ने इन सब मुसीबतों का डट कर मुकाबला किया और आज भी अपने कलम की धार कुंद नहीं होने दी है। 

एलिस मुनरो यूँ ही इस मुकाम तक नहीं पहुंचीं बल्कि इसके पीछे एक लम्बी साहित्य यात्रा है। मुनरो का पहला कहानी संग्रह "डांस आफ हैप्पी शेड्स" 1968 मे प्रकाशित हुआ, जबकि उनका ताजा कहानी संग्रह "डीयर लाइफ" पिछले साल वर्ष 2012 में   प्रकाशित हुआ। उनके अन्य कहानी संग्रहों में लाइव्स आफ गल्र्स एंडवीमिन्स (1971) हू डू यू थिंक यू आर (1978), द मून्स आफ जुपिटर (1982), रनअवे (2004), द वियू फ्राम कैसल राक (2006) और टू मच हैप्पीनेस (2009) उल्लेखनीय हैं। उनके कहानी संग्रह हेटशिप, फ्रेंडशिप, कोर्टशिप, लवशिप, मैरिज (2001) पर वर्ष 2006 में "अवे फ्राम हर" नाम से फिल्म भी बनी थी। एलिस मुनरो की कहानियां अक्सर छोटे शहरों के माहौल पर आधारित होती हैं, जहां अस्तित्व की सामाजिक स्वीकार्यता का संघर्ष तनावपूर्ण संबंधों और नैतिक उहापोह को जन्म देता है। ऎसी समस्याएं जो पीढियों के अतंर और महत्वाकांक्षा के टकराव से पैदा होती हैं। 

 वर्ष 2009 में मुनरो को प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार भी मिला था, जबकि तीन बार उन्हें कनाडा के "गवर्नर जनरल अवार्ड" से नवाजा गया है। यह भी अजीब इत्तफाक है कि  मुनरो स्वयं कहानीकार के बदले उपन्यासकार बनना चाहती थीं, पर भाग्य कि नियति उन्हें कहानीकार बना गया।  इसी साल जुलाई में न्यूयार्क टाइम्स को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, "अपनी पहली पांच किताबें लिखते समय मैं प्रार्थना कर रही थी कि काश मैं उपन्यास लिखती। मैं सोचती थी कि जब तक आप उपन्यास नहीं लिखते, लोग आपको लेखक के रूप में गंभीरता से नहीं लेते। यह सोच कर मैं काफी परेशान रहती थी, लेकिन अब कोई भी बात मुझे परेशान नहीं करती। मैं समझती हूं कि अब लोग लघुकथाओं को पहले के मुकाबले अधिक गंभीरता से लेते हैं।

एलिस मुनरो को 10 दिसंबर, 2013  को स्टाकहोम में एक औपचारिक समारोह में 12 . 4 लाख डालर की राशि और पुरस्कार दिया जायेगा. कनाडाई लेखिका एलिस मुनरो ने कहा कि वह यह जानकार काफी आश्चर्यचकित और प्रसन्न हैं कि उन्होंने साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीता है.एलीस ने  कहा, हां मुझे पता था कि मैं दौड़ में हूं लेकिन मुझे नहीं पता था कि मैं जीतूंगी.   लेखिका ने कहा कि उनकी बेटी ने उन्हें जगाते हुए खबर दी कि स्वीडन की नोबेल समिति ने साहित्य पुरस्कार के लिए उन्हें चुना है.

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

पंखे झलते देश के नौनिहाल

सोचिए, गर्मी में आप बैठे हों, फैन और एसी नहीं। कितना अजीब सा लगता है। कभी राजा-महाराजा चला करते थे तो उनके साथ पंखे झलने वालियों का हुजूम भी चला करता था। राजे-महराजे तो चले गए, पर उन जैसे सामंती मानसिकता वाले अधिकारी अभी भी उनकी यादों को जिन्दा किये हुए हैं। हमारे यहाँ सरकारी स्कूलों में अक्सर ऐसा देखने को मिलता था कि गर्मियों में मास्टर जी आराम से बैठकर बच्चों से पंखे झलवा रहे होते। घर में कोई मेहमान आता और लाइट  नहीं रहती तो फिर पंखे झलने के लिए बच्चों की ही ड्यूटी लगती ....खैर ये सब बातें पुरानी हैं। अभी उत्तर प्रदेश के शामली में दौरे पर  गए एक प्रमुख सचिव और जिलाधिकारी को बच्चों  से पंखा झलवाना महंगा पड़ा। मीडिया ने उनकी विकास के दावों की हवा के बीच पंखे झलवाते आकर्षक फोटुयें उतारी।आनन-फानन में राज्य सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि अफसरों की सामंती मानसिकता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और ऐसे अफसरों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही भी की जाएगी। अफसरों का अंजाम क्या होगा, यह तो वक़्त बताएगा पर यह तो स्पष्ट है की अभी भी समाज में परम्पराओं और सामंती मानसिकता के नाम पर बहुत कुछ चल रहा है, जिसका संज्ञान लेने की जरुरत है ...!!  

पूरी खबर यहाँ पर देख-पढ़ सकते हैं-

अखिलेश यादव जहां सूबे में छात्रों को लेपटॉप, बेरोजगारों को भत्ता और कन्याओं को कन्या विधा धन बांट रहे हैं वहीं उनके अधिकारी कुछ ऐसा कर रहे हैं जिन्हें देखकर शायद वो भी शर्मशार हो जाए।

शामली के जिलाधिकारी प्रवीण कुमार, उनके ठीक बगल में बैठे हैं सुनील कुमार जो समाज-कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव है। इनके बगल में शामली की सीडीओ वी के सिंह बैठे हैं, इनका नाम है लोकेश कुमार जनाब शामली के सीएमओ हैं। दरअसल अखिलेश राज में अधिकारियों को जब गर्मी लगने लगती है तो वे ये भी भूल जाते हैं कि मासूम बच्चों से काम करवाना कितना बड़ा जुर्म है।

ये तस्वीरें उत्तरप्रदेश के शामली जनपद के लोहिया ग्राम हसनपुर की है और पंखों की हवा खा रहे ये हैं अखिलेश सरकार के अधिकारी जो पहुंचे हैं गांव में विकास कार्यों का निरीक्षण करने। पहले तो इन्होंने गांव के विकास कार्यों का निरीक्षण किया, फिर लोगों की समस्याओं को सुनने के लिए बैठे उनके बीच मुख्यालय से गांव पहुंचे तो भाग-दौड़ भी थोड़ी ज्यादा हो गई। गांव की गलियों से भी गुजरना पड़ा। इसी वजह से उन्हें बैठते ही तेज गर्मी लगी लेकिन शामियाने में एससी तो चल नहीं सकते थे लिहाजा उनके लिए हाथ के पंखे के इंतजाम किए गए और इसके लिए छोटे बच्चों की ड्यूटी लगाई गई। गर्मी से तर-ब-तर भूखे-प्यासे बच्चे उन्हें पंखे झलते रहे लेकिन अधिकारियों को इन बच्चों पर तनिक भी दया नहीं आई।

अब सवाल ये है कि सूबे के समाज कल्याण के प्रमुख सचिव साहब क्या इसी तरीके से सूबे की जनता का कल्याण करते हैं या फिर ये उनके कार्यो का नमूना भर है। अब देखना ये है अखिलेश यादव अपने इन वरिष्ठ अधिकारियों को बाल श्रम कराने के लिए क्या क्या कोई सजा भी देते हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार ने शामली में अधिकारियों की एक बैठक में बच्चों से कथित रूप से पंखे झलवाने की घटना पर गंभीरता से लेते हुए कहा है कि ‘सामंती’ मानसिकता वाले अधिकारियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जायेगी.
शामली में अधिकारियों के पीछे खडे़ बच्चों को पंखा झलते दिखाये जाने की घटना पर प्रदेश के मंत्री राजेन्द्र चौधरी ने कहा, ‘मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बच्चों की भावनाओं के प्रति खासे संवेदनशील हैं. उन्हें इस घटना के बारे में बताया जायेगा और सरकार सामंती मानसिकता वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करेगी.’

चौधरी ने कहा कि अधिकारियों की बैठक में बच्चों से पंखे झलवाना एक गंभीर घटना है. यह सरकारी सेवा नियमावली के खिलाफ तो है ही, अधिकारियों की सामंतवादी मानसिकता की भी परिचायक है.

गौरतलब है कि कुछ न्‍यूज चैनलों पर शामली में हुई समाज कल्याण विभाग की बैठक में प्रमुख सचिव सुनील कुमार, जिलाधिकारी तथा अन्य अधिकारियों की एक बैठक में बच्चों को उनके पीछे खडे़ होकर हाथ से पंखे झलते हुए दिखाया गया है.

Courtesy : http://aajtak.intoday.in/story/action-against-officers-who-made-children-fan-them-1-744729.html



रविवार, 13 अक्तूबर 2013

रावण अभी भी नहीं मरा है



खामोश है ये शहर
सन्नाटा पसरा पड़ा है
आंतक की फैलती विषबेल
रावण अडिग सा खड़ा है।

जलता है हर साल
फिर आकर खड़ा है
डरते हैं अब राम भी
रावण आंतक पर अड़ा है।

फिर खड़ा हो करेगा अट्ठाहस
हर साल होता जाता बड़ा है
कब तक चलेगी यह लीला
रावण अभी भी नहीं मरा है।


शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

नवरात्र पर 'मातृ शक्ति' की पूजा ...पर असली जीवन में ??

एक बार फिर से शारदीय नवरात्र का शुभारंभ। हर साल यह पर्व आता है। इन नौ दिनों में हम मातृ शक्ति की आराधना करते हैं  नवरात्र मातृ-शक्ति का प्रतीक है। आदिशक्ति को पूजने वाले भारत में नारी को शक्तिपुंज के रूप में माना जाता है। नारी सृजन की प्रतीक है. हमारे यहाँ साहित्य और कला में नारी के 'कोमल' रूप की कल्पना की गई है. कभी उसे 'कनक-कामिनी' तो कभी 'अबला' कहकर उसके रूपों को प्रकट किया गया है. पर आज की नारी इससे आगे है. वह न तो सिर्फ 'कनक-कामिनी' है और न ही 'अबला', इससे परे वह दुष्टों की संहारिणी भी बनकर उभरी है. यह अलग बात है कि समाज उसके इस रूप को नहीं पचा पता. वह उसे घर की छुई-मुई के रूप में ही देखना चाहता है. बेटियाँ कितनी भी प्रगति कर लें, पुरुषवादी समाज को संतोष नहीं होता. उसकी हर सफलता और ख़ुशी बेटों की सफलता और सम्मान पर ही टिकी होती है. तभी तो आज भी गर्भवती स्त्रियों को ' बेटा हो' का ही आशीर्वाद दिया जाता है. पता नहीं यह स्त्री-शक्ति के प्रति पुरुष-सत्तात्मक समाज का भय है या दकियानूसी सोच. 

नवरात्र पर देवियों की पूजा करने वाले समाज में यह अक्सर सुनने को मिलता है कि 'बेटा' न होने पर बहू की प्रताड़ना की गई. विज्ञान सिद्ध कर चुका है कि बेटा-बेटी का पैदा होना पुरुष-शुक्राणु पर निर्भर करता है, न कि स्त्री के अन्दर कोई ऐसी शक्ति है जो बेटा या बेटी क़ी पैदाइश करती है. पर पुरुष-सत्तात्मक समाज अपनी कमजोरी छुपाने के लिए हमेशा सारा दोष स्त्रियों पर ही मढ़ देता है. ऐसे में सवाल उठाना वाजिब है क़ी आखिर आज भी महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह से क्यों ग्रस्त है पुरुष मानसिकता ? कभी लड़कियों के जल्दी ब्याह क़ी बात, कभी उन्हें जींस-टॉप से दूर रहने क़ी सलाह, कभी रात्रि में बाहर न निकलने क़ी हिदायत, कभी सह-शिक्षा को दोष तो कभी मोबाईल या फेसबुक से दूर रहने क़ी सलाह....ऐसी एक नहीं हजार बिन-मांगी सलाहें हैं, जो समाज के आलमबरदार रोज सुनाते हैं. उन्हें दोष महिलाओं क़ी जीवन-शैली में दिखता है, वे यह स्वीकारने को तैयार ही नहीं हैं कि दोष समाज की मानसिकता में है.

'नवरात्र' के दौरान अष्टमी के दिन नौ कन्याओं को भोजन कराने की परंपरा रही है. लोग उन्हें ढूढ़ने के लिए गलियों की खाक छानते हैं, पर यह कोई नहीं सोचता कि अन्य दिनों में लड़कियों के प्रति समाज का क्या व्यवहार होता है। आश्चर्य होता है कि यह वही समाज है जहाँ भ्रूण-हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार जैसे मामले रोज सुनने को मिलते है पर नवरात्र की बेला पर लोग नौ कन्याओं का पेट भरकर, उनके चरण स्पर्श कर अपनी इतिश्री कर लेना चाहते हैं। आखिर यह दोहरापन क्यों? इसे समाज की संवेदनहीनता माना जाय या कुछ और? आज बेटियां धरा से आसमां तक परचम फहरा रही हैं, पर उनके जन्म के नाम पर ही समाज में लोग नाकभौं सिकोड़ने लगते हैं। यही नहीं लोग यह संवेदना भी जताने लगते हैं कि अगली बार बेटा ही होगा। इनमें महिलाएं भी शामिल होती हैं। वे स्वयं भूल जाती हैं कि वे स्वयं एक महिला हैं। आखिर यह दोहरापन किसके लिए ?

समाज बदल रहा है। अभी तक बेटियों द्वारा पिता की चिता को मुखाग्नि देने के वाकये सुनाई देते थे, हाल के दिनों में पत्नी द्वारा पति की चिता को मुखाग्नि देने और बेटी द्वारा पितृ पक्ष में श्राद्ध कर पिता का पिण्डदान करने जैसे मामले भी प्रकाश में आये हैं। फिर पुरूषों को यह चिन्ता क्यों है कि उनकी मौत के बाद मुखाग्नि कौन देगा। अब तो ऐसा कोई बिन्दु बचता भी नहीं, जहाँ महिलाएं पुरूषों से पीछे हैं। फिर भी समाज उनकी शक्ति को क्यों नहीं पहचानता? समाज इस शक्ति की आराधना तो करता है पर वास्तविक जीवन में उसे वह दर्जा नहीं देना चाहता। ऐसे में नवरात्र पर नौ कन्याओं को भोजन मात्र कराकर क्या सभी के कर्तव्यों की इतिश्री हो गई ....???


शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

'देवालय' बनाम 'शौचालय'

'देवालय' बनाम 'शौचालय' ....मुद्दा फिर चर्चा में है। कभी स्व. काशीराम, कभी जयराम रमेश और अब नरेन्द्र मोदी ....पर इसे मात्र मुद्दे और विचारों तक रखने की ही जरुरत नहीं है, इस पर ठोस पहल और कार्य की भी जरुरत है। आज भी भारत में तमाम महिलाएं  'शौचालय' के अभाव में अपने स्वास्थ्य से लेकर सामाजिक अस्मिता तक के लिए जद्दोजहद कर रही हैं। स्कूलों में 'शौचालय' के अभाव में बेटियों का स्कूल जाना तक दूभर हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो काफी बुरी स्थिति है। पहले घर और स्कूलों को इस लायक बनाएं कि महिलाएं वहाँ आराम से और इज्जत से रह सकें, फिर तो 'देवालय' बन ही जाएंगें। इसे सिर्फ राजनैतिक नहीं सामाजिक, शैक्षणिक, पारिवारिक  और आर्थिक रूप में भी देखने की जरुरत है !!

फ़िलहाल, राजनैतिक मुद्दा क्यों गरम है, इसे समझने के लिए पूरी रिपोर्ट पढ़ें, जो कि  साभार प्रकाशित है।

नई दिल्ली। केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने नरेंद्र मोदी को उनके उस बयान पर आडे हाथों लिया है जिसमें उन्होंने देवालय से ज्यादा महत्व शौचालय को देने की बात कही थी। खुद भी ऎसा ही बयान दे चुके रमेश ने कहा कि मोदी ऎसे नेता हैं जो रोज नए रूप में सामने आते हैं। मोदी को यह बताना चाहिए कि क्या वह अयोध्या में महा शौचालय बनाने के कांशीराम के सुझाव से सहमत हैं। एक कार्यक्रम के दौरान टीवी पत्रकारों से बात करते हुए जयराम रमेश ने कहा, अब जब उन्होंने देवालय से पहले शौचालय की बात कह दी है तो उन्हें यह भी साफ करना चाहिए क्या वह अयोध्या में ब़डा सा शौचालय बनवाने के कांशीराम के सुझाव से भी सहमत हैं या नहीं। उन्होंने कहा, कांशीराम जी ने एक रैली में यह सुझाव दिया था।

उन्होंने कहा, अब मेरे बीजेपी के दोस्त क्या कहेंगे। मोदी के बयान पर वो क्या राय रखते हैं। जब मैंने कुछ ऎसा ही बयान दिया था तो विरोध हुआ। राजीव प्रताप रूडी और प्रकाश जावडेकर ने मुझपर धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाया पर अब वे क्या कहेंगे। इनके अलावा कुछ संगठनों ने विरोध का बेहद ही खराब तरीका अपनाया और मेरे घर के सामने पेशाब की बोतल रख दी। मोदी पर निशाने साधते हुए उन्होंने कहा, चलो देर से ही सही पर मोदी को ज्ञान तो मिला पर उनकी ये बयानबाजी सिर्फ राजनीति के कारण है क्योकि गुजरात के सीएम पीएम बनने का सपना देख रहे हैं। जयराम रमेश ने कहा कि खुद को हिंदुत्ववादी बताने वाले मोदी अब नए अवतार में सामने आए हैं। वह ऎसे नेता हैं जो रोज नए अवतार में सामने आते हैं। हमारे यहां दशावतार की बात कही जाती है, लेकिन उनके लिए यह शब्द कम पडेगा। वह शतावतार वाले नेता हैं। रमेश ने मोदी के शौचालय वाले बयान पर निशाना साधते हुए कहा कि 2011-12 में गुजरात सरकार ने दावा किया था कि ग्रामीण इलाकों में लगभग 82 फीसदी घरों में शौचालय हैं, पर सही आंकडा सिर्फ 34 फीसदी है। इससे विकास के दावे पूरी तरह से सामने आ जाते हैं।

गौरतलब है कि खुद जयराम रमेश ने कुछ दिन पहले ऎसा बयान दिया था कि गांव में मंदिर बनवाने से ज्यादा जरूरी है कि शौचालय की व्यवस्था करना। उनके उस बयान की काफी आलोचना हुई थी। उस बयान के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, मैंने देवालय का नाम नहीं लिया था। लेकिन उस बयान पर हंगामा मचाने वाले लोगों को अब मोदी के इस बयान पर अपना रूख साफ करना चाहिए। 

दिग्गी ने पूछा, भाजपा अब चुप क्यूं... 
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अखबार के एक पुराने लेख का उललेख किया जिसमें मोदी के हवाले से कहा गया था कि वो लोग जो शौचालय साफ करते हैं उन्हें ऎसा करने में आध्यात्मिक खुशी मिलती है जबकि केन्द्रीय मंत्री राजीव शुक्ला ने कहा कि "मोदी हिन्दू नेता नहीं" हैं लेकिन हिन्दुओं को भ्रमित करने व वोट इकटा करने के लिए उन्हें ऎसा पेश किया जा रहा है।

रमेश का भाजपा ने किया था विरोध...
शुक्ला ने कहा कि मोदी जो कुछ भी कहते हैं उस पर भाजपा चुप्पी मार जाती है और उन्हें समर्थन देना शुरू कर देती है। जयराम रमेश ने एक बार कहा था कि गावों में मंदिर से पहले शौचालय बनना चाहिए। तब भाजपा ने तत्काल रमेश की आलोचना की थी और मांग की कि उन्हें देश से माफी मागनी चाहिए। शुक्ला ने कहा,जब मोदी ने ऎसा कहा तो भाजपा अपना मुंह क्यों नहीं खोल रही है। मोदी कोई हिन्दू नेता नहीं हैं। उन्होंने हिन्दुओं के लिए कुछ किया भी नहीं है। उनकी राय भी पूरी तरह से अलग है। वोट हासिल करने के षडयंत्र के तहत लोगों को, हिन्दुओं को भ्रमित करने के लिए उन्हें इस तरह से पेश किया जा रहा है।

क्या मोदी ने शौचालय साफ किया...
मोदी के कटु आलोचक समझे जाने वाले कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कहा कि उन्होंने एक लेख देखा है जिसमें मोदी ने कहा था कि जो शौचालयों को साफ करते हैं उन्हें इसकी सफाई करने में आध्यात्मिक खुशी मिलती है। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि क्या उन्हें कभी इस तरह की खुशी का अनुभव हुआ था और शौचालय साफ किया था। 

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

मैं राजघाट से गाँधी की आत्मा बोल रहा हूँ ....




मैं राजघाट से गाँधी नहीं, 
उनकी आत्मा बोल रहा हूँ
मेरी समाधी पर वर्षो से शीश झुका रहे है
भारत के भ्रष्ट और बेईमान नेता और अपने 
काले कृत्यों में मुझे जोड़ दुःख पहुचाते हैं
जानते हुए भी की मैंने ऐसे भारत की
कभी परिकल्पना भी नहीं की थी.
आते है विश्व नेता भी जो मुझे
भारतियों से अधिक जानते है
जो सचमुच मुझसे स्नेह करते है
मेरे दर्शन को जानते है,
मुझसे प्रेरणा लेते है

क्या भारत में ऐसी कोई जगह है
जहाँ मेरी तस्वीर न छपी हो
और जहाँ मेरा निरादर न हो
यहाँ तक की सबसे अधिक काले धन की
मुद्रा पर भी मेरी ही तस्वीर छाप दी

मैं कोई व्यक्ति नहीं हूँ
न ही यह मेरा निवास स्थान है.
मैं एक विचारधारा हूँ जो असंख्य
लोगो के दिलो में बस्ती है
मैं प्रतिबिम्ब हूँ उन करोड़े देशवासियों का.
मेरी समाधी पर आ कर फूल
अर्पित करने वालो, कभी अपने अन्दर
झांक कर देखो, क्या कभी
तुमने उन आदर्शो को अपने जीवन
में जीने का प्रयास भी किया है, 
जिनके लिए लिए मैंने अपना
पूरा जीवन जी कर दिखलाया,
मेरा दर्शन समझने की कोशिश तो करो,
मैं भारत की आत्मा हूँ, मेरे दर्शन में ही
छिपा है भारत की समस्याओ का हल

यहाँ सत्यागढ़ के ढकोसले मत करो
दुःख होता है मेरी आत्मा को
मुझे किसी की गोली ने नहीं मारा
मारा है तो बेईमान भ्रष्ट राजनेताओ
नौकरशाहों और व्यव्सहियो ने

मेरी समाधी कोई पर्यटन स्थल नहीं
यहाँ आकर फूल मत अर्पण करो
यह भारत मेरे सपनो का भारत नहीं
अब यहाँ अहिंसा परमो धर्म नहीं
यहाँ तस्वीर मत खिचवाया करो
क्योंकि मैं तो कब का छोड़ चुका हूँ
इस राजघाट को, जन्म ले चुका हूँ
किसी और के रूप में
और तुम पूजे जा रहे हो ........

तुमने मेरे सपनो के भारत को
कुत्सित राजनेतिक चालों से 
बदल दिया है एक भ्रष्ट राष्ट्र में
अब तो मेरी तस्वीर भारतीय मुद्रा से हटा,
छाप दो उन चेहरों को जिन्होंने लूटा है
मेरे भारत की भोली भाली मासूम जनता हो
और मुझे चैन से बैठ कर पश्चाताप करने दो
की मैंने क्यों भारत को आज़ाद कराने की गलती की

विनोद पासी "हंसकमल"

( फेसबुक पर 'शब्द-शिखर' ग्रुप में विनोद पासी "हंसकमल"जी की प्रकाशित यह कविता साभार) 

रविवार, 22 सितंबर 2013

'इण्डिया टुडे' में बेटियों की मनोदशा पर तीन कविताएँ




बेटियाँ समाज की अमूल्य धरोहर हैं। इन्हें बचाकर-सहेजकर रखिये, नहीं तो सृष्टि का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।आज डाटर्स  डे है, यानि बेटियों का दिन। यह सितंबर माह के चौथे रविवार को मनाया जाता है। इस साल यह 22  सितम्बर को मनाया जा रहा है। गौरतलब है कि चाईल्‍ड राइट्स एंड यू (क्राई) और यूनिसेफ ने वर्ष 2007 के सितंबर माह के चौथे रविवार यानी 23 सितंबर, 2007 को प्रथम बार 'डाटर्स-डे' मनाया था, तभी से इसे हर वर्ष मनाया जा रहा है।  इस पर एक व्यापक बहस हो सकती है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस दिन का महत्त्व क्या है, पर जिस तरह से अपने देश में लिंगानुपात कम है या भ्रूण हत्या जैसी बातें अभी भी सुनकर मन सिहर जाता है, उस परिप्रेक्ष्य में जरुर इस दिन का बहुत महत्त्व है। 


आज की बेटियाँ पहले जैसी नहीं रहीं। अब वो सवाल-जवाब करने लगी हैं। प्रतिरोध करने लगी हैं। संस्कारों को जीने के साथ-साथ अपनी नियति की बागडोर भी सँभालने लगी हैं। बेटियों से संबंधित मेरी तीन कविताएँ 'इण्डिया टुडे स्त्री' के मार्च 2010 में प्रकाशित हुई थीं।यह समाज में बेटियों की विभिन्न मनोदशाओं को दर्शाती हैं। आप भी पढ़िए -
21वीं सदी की बेटी

जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने

पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है

वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना।

एक लड़की

न जाने कितनी बार

टूटी है वो टुकड़ों-टुकड़ों में

हर किसी को देखती

याचना की निगाहों से

एक बार तो हाँ कहकर देखो

कोई कोर कसर नहीं रखूँगी

तुम्‍हारी जिन्‍दगी संवारने में

पर सब बेकार.


कोई उसके रंग को निहारता

तो कोई लम्‍बाई मापता

कोई उसे चलकर दिखाने को कहता

कोई साड़ी और सूट पहनकर बुलाता

पर कोई नहीं देखता

उसकी आँखों में

जहाँ प्‍यार है, अनुराग है


लज्‍जा है, विश्‍वास है।


मैं अजन्मी

मैं अजन्मी
हूँ अंश तुम्हारा
फिर क्यों गैर बनाते हो
है मेरा क्या दोष
जो, ईश्वर की मर्जी झुठलाते हो

मै माँस-मज्जा का पिण्ड नहीं
दुर्गा, लक्ष्मी औ‘ भवानी हूँ
भावों के पुंज से रची
नित्य रचती सृजन कहानी हूँ

लड़की होना किसी पाप की
निशानी तो नहीं
फिर
मैं तो अभी अजन्मी हूँ
मत सहना मेरे लिए क्लेश
मत सहेजना मेरे लिए दहेज
मैं दिखा दूँगी
कि लड़कों से कमतर नहीं
माद्दा रखती हूँ
श्मशान घाट में भी अग्नि देने का

बस विनती मेरी है
मुझे दुनिया में आने तो दो !!!




शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर सम्मेलन में ब्लागर दंपति आकांक्षा यादव- कृष्ण कुमार यादव सम्मानित

इंटरनेट पर हिंदी के व्यापक प्रचार-प्रसार और ब्लागिंग के माध्यम से देश-विदेश में अपनी रचनाधर्मिता को विस्तृत आयाम देने वाले ब्लागर दम्पति कृष्ण कुमार यादव और  आकांक्षा  यादव को काठमांडू, नेपाल में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर सम्मेलन में क्रमशः ''परिकल्पना साहित्य सम्मान'' एवं ''परिकल्पना ब्लाग विभूषण'' से नवाजा गया। नेपाल की विषम राजनीतिक परिस्थितियों के चलते मुख्य अतिथि नेपाल के राष्ट्रपति डा0 राम बरन यादव की अनुपस्थिति में यह सम्मान नेपाल सरकार के पूर्व शिक्षा व स्वास्थ्य मंत्री तथा संविधान सभा के अध्यक्ष अर्जुन नरसिंह केसी ने दिया। इस सम्मेलन में एकमात्र बाल ब्लागर के रूप में गल्र्स हाई स्कूल, इलाहाबाद की कक्षा 1 की छात्रा अक्षिता ने भी भाग लिया। 

इस अवसर पर यादव दम्पति सहित देश-विदेश के हिंदी, नेपाली, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मैथिली आदि भाषाओं के ब्लागर्स को भी सम्मानित किया गया। परिकल्पना समूह द्वारा आयोजित यह समारोह 13-15 सितम्बर के मध्य काठमांडू के लेखनाथ साहित्य सदन, सोरहखुटे सभागार में हुआ।

इस अवसर पर ’’न्यू मीडिया के सामाजिक सरोकार’’ सत्र में वक्ता के रूप में कृष्ण कुमार यादव ने बदलते दौर में न्यू मीडिया व ब्लागिंग व इसके सामाजिक प्रभावों पर विस्तृत चर्चा की, वहीं ’’साहित्य में ब्लागिंग की भूमिका’’ पर हुयी चर्चा को सारांशक रूप में आकांक्षा यादव ने मूर्त रूप दिया।

गौरतलब है कि इलाहाबाद परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएं पद पर पदस्थ कृष्ण कुमार यादव एवं उनकी पत्नी आकांक्षा यादव एक लंबे समय से ब्लाग और न्यू मीडिया के माध्यम से हिंदी साहित्य एवं विविध विधाओं में अपनी रचनाधर्मिता को प्रस्फुटित करते हुये अपनी व्यापक पहचान बना चुके हैं।

(सम्मान चित्र : अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर सम्मेलन, काठमांडू (13 सितम्बर, 2013 ) में आकांक्षा यादव को ''परिकल्पना ब्लॉग विभूषण'' से सम्मानित  करते नेपाल सरकार के पूर्व मंत्री तथा संविधान सभा के अध्यक्ष अर्जुन नरसिंह केसी जी। साथ में परिलक्षित हैं- कृष्ण कुमार यादव, बेटियाँ अक्षिता व अपूर्वा, परिकल्पना के संयोजक रवीन्द्र प्रभात  और वरिष्ठ नेपाली साहित्यकार कुमुद अधिकारी।)

                                                                     (साभार प्रकाशित)

बुधवार, 11 सितंबर 2013

'दामिनी' का न्याय बनाम 'आधी-आबादी'

आज फैसले की घड़ी है। दामिनी रेप केस के अभियुक्तों को न्यायालय द्वारा सजा सुनाये जाने का महत्वपूर्ण दिन है। पर क्या वाकई यह फैसला एक मील का पत्थर साबित होगा। क्या इस फैसले के बाद आधी आबादी का 'दामिनी' जैसा हश्र नहीं होगा। भारत में एक नहीं कई दामिनियाँ हैं, जिनके दामन को रोज कलंकित किया जाता है। दिल्ली, मुंबई और राजधानियों की घटनाएँ तो खबर बनकर लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं, पर दूरदराज इलाकों में भी स्थिति बहुत अच्छी  नहीं है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों की मानें तो भारत में हर वर्ष बलात्कार के मामलों में बढ़ोतरी दर्ज हो  रही है। वर्ष 2011 में देशभर में बलात्कार के कुल 7,112 मामले सामने आए, जबकि 2010 में 5,484 मामले ही दर्ज हुए थे। आंकड़ों के हिसाब से एक वर्ष में बलात्कार के मामलों में 29.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। राजधानी दिल्ली का तो बेहद बुरा हाल है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ही आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली बलात्कार के मामले में सबसे आगे है। 2007 से 2011 की अवधि के दौरान अर्थात चार साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो इस मामले में दिल्ली नंबर वन रही। एनसीबी के आंकड़ों के मुताबिक देश की राजधानी लगातार चौथे साल बलात्कार के मामले में सबसे आगे है। आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में साल 2011 में रेप के 568 मामले दर्ज हुए, जबकि मुंबई में 218 मामले दर्ज हुए।

राज्यों की बात करें तो मध्यप्रदेश इस मामले में सबसे ऊपर है। मप्र में रेप के सबसे अधिक 15,275 मामले दर्ज किए गए। पश्चिम बंगाल में 11,427, यूपी में 8834 और असम में 8060 मामले दर्ज किये गए। 7703 रेप केस के साथ महाराष्ट्र इस सूची में पांचवें नंबर पर है यानी कुल 51 हजार 299 बलात्कार हुए। हल ही में मुंबई में दिनदहाड़े हुए महिला पत्रकार का बलात्कार इसका ज्वलंत उदाहरण है।

मात्र दर्ज मामलों के आधार पर  राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन लगभग 50 बलात्कार के मामले थानों में पंजीकृत होते हैं। इस प्रकार भारतभर में प्रत्येक घंटे दो महिलाएं बलात्कारियों के हाथों अपनी अस्मत गंवा देती हैं। ‘विश्व स्वास्थ संगठन के एक अध्ययन के अनुसार, 'भारत में प्रत्येक 54वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।’ वहीं महिलाओं के विकास के लिए केंद (सेंटर फॉर डेवलॅपमेंट ऑफ वीमेन) अनुसार, ‘भारत में प्रतिदिन 42 महिलाएं बलात्कार का शिकार बनती हैं। इसका अर्थ है कि प्रत्येक 35वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।’ट्रस्ट लॉ वोमेन द्वारा किए गए हालिया सर्वेक्षण के अनुसार भारत स्त्रियों के लिए दुनिया का चौथा सबसे खतरनाक देश है।

बलात्कार की घटनाएँ जिस तरह बढ़ रही हैं, वह हमारे संस्कार, पारिवारिक मूल्यों, परिवेश और स्कूली शिक्षा पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। 'आधी आबादी' का सर्वप्रथम शोषण घर से ही शुरू होता है। आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर बलात्कार जान-पहचान वाले लोग ही करते हैं। इसी आधार पर ‘रेप क्राइसिस इंटरवेंशन सेंटर’ ने दिल्ली में 2010 के शुरु से जुलाई 2011 में हुए बलात्कारों पर दर्ज एफ.आइ.आर. का गहन अध्ययन किया तो चौंकाने  नतीजे सामने आए। इसमें यह पाया गया कि 66%  बलात्कार-पीड़ित लड़कियां बीस साल की उम्र के नीचे की हैं जिनमें 22% की उम्र तो  दस साल के भी नीचे है। दूसरी ओर 67% बलात्कारी की उम्र बीस साल के ऊपर है। अधिकतर मामलों में पाया गया कि बलात्कारी मूलतः पीड़ित लड़की के जाने-पहचाने होते हैं जिनमें रिश्तेदार, पड़ोसी, दोस्त, शिक्षक और अन्य निकट संबंधी होते हैं। अपरिचितों द्वारा बलात्कार के मामले उतने ज्यादा नहीं हैं।मसलन् 58 पीड़ितों में 51 जान-पहचान के और बाकी 7 अपरिचित होते हैं। ऐसे में बलात्कार  के मामलों की जांच में जुटे पुलिस अधिकारियों का मानना है कि ऐसे अधिकतर मामलों में आरोपी को पीड़िता के बारे में जानकारी होती है। ऐसे में कई बार यह एक क़ानूनी से ज्यादा सामाजिक समस्या बन जाती है है और ऐसे अपराधों पर नकेल कसने के लिए सिर्फ क़ानूनी ही नहीं, सामाजिक रूप से भी सशक्त पहल करनी होगी। अधिकारियों की मानें तो इनमें से अधिकांश मामले बेहद तकनीकी होते हैं। अक्सर ऐसे अपराध दोस्तों या रिश्तेदारों द्वारा किए जाते हैं, जो पीड़िता को झूठे वादे कर बहलाते हैं, फिर गलत काम करते हैं। कई बार ऐसे अपराध अज्ञात लोग करते हैं और पुलिस की पहुंच से आसानी से बच निकलते हैं। हालांकि कुछ मामलों में यह भी देखा गया है कि इसमें पीड़िता की रजामंदी होती है, उसे इस बात के लिए रजामंद कर लिया जाता है। पर बाद में कुछ कारणों से इसे दूसरा रूप दे दिया जाता है।

 बलात्कार सिर्फ एक शारीरिक दुष्कृत्य नहीं है, बल्कि यह समग्र नारी अस्मिता से जुड़ा  सवाल है। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि बलात्कार से पीड़ित महिला बलात्कार के बाद स्वयं अपनी नजरों में ही गिर जाती है, और जीवनभर उसे उस अपराध की सजा भुगतनी पड़ती है, जिसे उसने नहीं किया। 

...ऐसे में सवाल  उठना लाजिमी है कि क्या 'दामिनी' केस में सुनाया गया फैसला सिर्फ एक फैसला होगा या यह आधी आबादी की सुरक्षा भी सुनिश्चित करता है।

- आकांक्षा यादव : शब्द-शिखर @ www.shabdshikhar.blogspot.com/