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मंगलवार, 28 मई 2013

शब्दों से बदलाव की कोशिश



मैं मांस, मज्जा का पिंड नहीं, दुर्गा, लक्ष्मी और भवानी हूँ , भावों से पुंज से रची, नित्य रचती सृजन कहानी हूँ । ये लाइनें आकांक्षा यादव की इच्छा, हौसला और महिलाओं के लिए कुछ कर गुजरने की उनकी तमन्ना को बयां करने के लिए काफी हैं।  गाजीपुर की मिडिल क्लास फैमिली से बिलांग करने वाली आकांक्षा की बचपन से ही महिलाओं की जिंदगी में बड़ा परिवर्तन  कराने की प्रबल इच्छा रही है। गाजीपुर में फैमिली के साथ रहते हुए किसी लड़की के लिए यह संभव नहीं था, लेकिन 2004 में डाइरेक्टर पोस्टल सर्विसेज के के यादव से शादी के बाद उनकी यह दबी हुई इच्छा जाग्रत हो गई। 

लोक सेवा आयोग के थ्रू  होने वाली लेक्चरर भर्ती में सेलेक्ट होकर वह जीजीआइसी में लेक्चरर बनीं लेकिन जब पाया कि इस नौकरी के चलते वह अपने मकसद से भटक जाएंगी तो उन्होने जॉब  से रिजाइन कर दिया। नारी विमर्श पर उनके मन में चल रहे द्वंद  को उन्होंने  अपने शब्दों के जरिए लोगों को जगाने का काम किया। महिलाओं से रिेलेटेड उनके आर्टिकल देश भर की मैगजीन में पब्लिश्ड हो चुके हैं। दो बुक भी लिख चुकी हैं। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि आनलाइन दुनिया में भी अपने ब्लॉग  में उन्होने महिलाओं की हालिया स्थिति में परिवर्तन की डिमांड को जोर-शोर से उठाया। उनकी ब्लागिंग की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्हें दशक के श्रेष्ठ  ब्लागर दंपति का अवार्ड मिला ।

आकांक्षा कहती हैं कि वह महिलाओं में बदलाव लाना चाहती हैं। फिलहाल वह अपनी लेखनी से महिलाओं को जगाने का काम कर रही हैं। अगर जरूरत पड़ी तो वह बाहर आकर भी इसके लिए लड़ाई लड़ेंगी।

(आई नेक्स्ट (इलाहाबाद संस्करण) 28 मई 2013 में प्रकाशित )


रविवार, 12 मई 2013

माँ का रिश्ता सबसे अनमोल




माँ दुनिया का  सबसे अनमोल रिश्ता है। एक ऐसा रिश्ता जिसमें सिर्फ अपनापन और प्यार होता है। माँ की इबादत हर दिन भी करें तो भी उसका कर्ज नहीं चुका सकते। कहते हैं ईश्वर ने अपनी जीवंत उपस्थिति हेतु माँ को भेजा। माँ  को खुशियाँ और सम्मान देने के लिए पूरी ज़िंदगी भी कम होती है। फिर भी पूरी दुनिया में माँ  के सम्मान में प्रत्येक वर्ष मई माह के दूसरे रविवार को 'मदर्स डे' मनाया जाता है। वैसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो मातृ  पूजा की सनातन परंपरा रही है, पर इसके लिए कोई दिन नियत नहीं होता। हर कोई अपनी माँ से प्यार करता है, फिर किसी एक दिन की क्या ज़रूरत !

अब भारत में भी पाश्चात्य देशों की तरह 'मदर्स डे' एक खास दिवस पर मनाया जाने लगा है। वैश्विक स्तर  पर देखें तो मदर्स डे  का इतिहास सदियों पुराना एवं प्राचीन है। यूनान में बसंत ऋतु के आगमन पर रिहा परमेश्वर की मां को सम्मानित करने के लिए यह दिवस मनाया जाता था। 16वीं सदी में इंग्लैण्ड का ईसाई समुदाय ईशु की मां मदर मेरी को सम्मानित करने के लिए यह त्योहार मनाने लगा। `मदर्स डे' मनाने का मूल कारण मातृ शक्ति को सम्मान देना और एक शिशु के उत्थान में उसकी महान भूमिका को सलाम करना है।

 मदर्स डे की शुरुआत अमेरिका से हुई। वहाँ एक कवयित्री और लेखिका जूलिया वार्ड होव ने 1870 में 10 मई को माँ के नाम समर्पित करते हुए कई रचनाएँ लिखीं। वे मानती थीं कि महिलाओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी व्यापक होनी चाहिए। मदर्स डे को आधिकारिक बनाने का निर्णय अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विलसन ने 8 मई1914 को लिया। 8 मई, 1914 में अन्ना की कठिन मेहनत के बाद तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाने और मां के सम्मान में एक दिन के अवकाश की सार्वजनिक घोषणा की। वे समझ रहे थे कि सम्मान, श्रद्धा के साथ माताओं का सशक्तीकरण होना चाहिए, जिससे मातृत्व शक्ति के प्रभाव से युद्धों की विभीषिका रुके। तब से हर वर्ष मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाता है।  अमेरिका में मातृ दिवस (मदर्स डे) पर राष्ट्रीय अवकाश होता है। अलग-अलग देशों में मदर्स डे अलग अलग तारीख पर मनाया जाता है।

 भारत में भी मदर्स डे का महत्व बढ़ रहा है। इस दिन माँ के प्रति सम्मान-प्यार व्यक्त करने के लिए कार्ड्स, फूल व अन्य  उपहार भेंट किये जाते हैं। ग्रामीण इलाकों में अभी भी इस दिवस के प्रति अनभिज्ञता है पर  नगरों में यह एक फेस्टिवल का रूप ले चुका है। काफी हद तक इसका व्यवसायीकरण भी हो चुका है। पर माँ तो माँ है। वह अपने बच्चों के लिए हर कुछ बर्दाश्त कर लेती है, पर दुःख तब होता है जब माँ की सहनशीलता और स्नेह को उसकी कमजोरी मानकर उनके साथ दोयम व्यव्हार किया जाता है। माँ के लिए बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जाता है, यह कला और साहित्य का एक प्रमुख विषय भी है, माँ के लिए तमाम संवेदनाएं प्रकट की जाती हैं पर माँ अभी भी अकेली है। जिन बेटों-बेटियों को उसने दुनिया में सर उठाने लायक बनाया, शायद उनके पास ही माँ के लिए समय नहीं है। अधिकतर घरों में माँ की महत्ता को हमने गौण बना दिया है। आज भी माँ को अपनी संतानों से किसी धन या ऐश्वर्य की लिप्सा नहीं, वह तो बस यही चाहती है कि उसकी संतान जहाँ रहे खुश रहे। पर माँ के प्रति अपने दायित्वों के निर्वाह में यह पीढ़ी बहुत पीछे है। माँ के त्याग, तपस्या, प्यार का न तो कोई जवाब होता है और न ही एक दिन में इसका कोई कर्ज उतारा जा सकता है। मत भूलिए कि आज हम-आप जैसा अपनी माँ से व्यव्हार करते हैं, वही संस्कार अगली पीढ़ियों में भी जा रहे हैं। 


बुधवार, 8 मई 2013

हमारी बेटियाँ



हमारी बेटियाँ 
घर को सहेजती-समेटती
एक-एक चीज का हिसाब रखतीं
मम्मी की दवा तो
पापा का आफिस
भैया का स्कूल
और न जाने क्या-क्या।

इन सबके बीच तलाशती
हैं अपना भी वजूद
बिखेरती हैं अपनी खुशबू
चहरदीवारियों से पार भी
पराये घर जाकर
बना लेती हैं उसे भी अपना
बिखेरती है खुशियाँ
किलकारियों की गूंज  की ।

हमारी  बेटियाँ 
सिर्फ बेटियाँ  नहीं होतीं
वो घर की लक्ष्मी
और आँगन की तुलसी हैं
मायके में आँचल का फूल
तो ससुराल में वटवृक्ष होती हैं 
हमारी बेटियाँ  ।