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मंगलवार, 8 जुलाई 2014

नारों और आँकड़ों में उलझी गरीबी

'गरीबी हटाओ' का नारा हमारे जन्म से भी पहले का है। वक़्त बदला, पीढ़ियाँ बदल गईं पर नारा अभी भी वहीँ अटका पड़ा है।  हर सरकार गरीबी निर्धारण के नए फार्मूले तैयार करती है।  गरीबी का पैमाना कुछ रुपयों के बीच झूल रहा है।  इसे थोड़ा सा आगे या पीछे कर सरकारें अपनी इमेज चमकाती हैं कि देखो हमने इतने प्रतिशत गरीबी कम कर दी, पर बेचारा गरीब अभी भी उसी स्थिति में पड़ा है।  न तो उसे गरीबी रेखा की बाजीगरी समझ में आती है और न उसे यह पता होता  है कि कब वह गरीबी रेखा से नीचे या ऊपर हो गया।  सवाल अभी भी वहीँ मौजूं है कि आखिर सरकारें गरीबी दूर करने के लिए 'नारों' और 'गरीबी रेखा के पैमानों' पर ही क्यों अटकी पड़ी हैं।  आखिर इस दिशा में कोई ठोस पहल क्यों नहीं होती !!





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