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रविवार, 23 जुलाई 2017

आकांक्षा यादव को 'रचना प्रतिभा सम्मान' व 'शतकवीर सम्मान', मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच ने जोधपुर में किया सम्मानित

साहित्यकारों, लेखकों, कवियों या तमाम विधाओं के रचनाकारों से उनका बायोडाटा मंगाकर उन्हें सम्मानित करने की बहुत पुरानी परम्परा रही है। परन्तु, यदि कोई आपसे यह कहे कि आपकी रचनाओं को बिना आपका नाम बताये देश के तमाम शहरों में सुनाया गया और श्रोताओं ने उन्हें पसंद कर कार्ड दिए तो सुनकर अच्छा लगता है। ऐसा ही अनूठा प्रयास देश भर में मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच (मगसम), भारत वर्ष  द्वारा किया जा रहा है, जिसे कि स्थापित मंचीय कवियों के समानांतर एक नई सोच खड़ी करने के लिए सराहा जा रहा है। 
पिछले दिनों मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच (मगसम) के राष्ट्रीय संयोजक श्री सुधीर सिंह सुधाकर ने सूचित किया कि देश भर में हमारी रचनाओं के पाठ के दौरान श्रोताओं द्वारा एक हजार से ज्यादा ग्रीन कार्ड मिले हैं और कई रचनाओं को तो एक ही दिन में सौ से ज्यादा ग्रीन कार्ड मिले हैं। इसी आधार पर मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच (मगसम) द्वारा हमें 7 जुलाई, 2017 को जोधपुर के होटल चंद्रा इन में आयोजित समारोह  में ''रचना प्रतिभा सम्मान'' और ''शतकवीर सम्मान'' से सम्मानित किये जाने का निर्णय लिया गया है। खैर, अपनी अस्वस्थता के चलते हमारा यह  सम्मान पतिदेव श्री कृष्ण कुमार यादव जी ने  ग्रहण किया।

 कृष्ण कुमार यादव जी को भी देश भर में उनकी रचनाओं के पाठ के दौरान श्रोताओं द्वारा श्रेष्ठता आधार पर, ''रचना स्वर्ण प्रतिभा सम्मान'', और ''शतकवीर सम्मान'' से सम्मानित किया गया। इस सद्भावना के लिए मगसम का आभार! 

यह सम्मान कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवि-कथाकार श्री रविदत्त मोहता, वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरिदास व्यास, सेवानिवृत्त न्यायधीश श्री मुरलीधर वैष्णव और मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच के राष्ट्रीय संयोजक श्री सुधीर सिंह सुधाकर ने प्रदान किये। सम्मान स्वरुप  श्रीफल, शाल, प्रशस्ति-पत्र और स्मृति चिन्ह प्रदान किया गया। रचना का कद रचनाकार से सदैव बड़ा होता है, ऐसे में अपनी रचनाओं को सम्मानित किये जाने से हम अभिभूत हैं । 

मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच (मगसम) के राष्ट्रीय संयोजक श्री सुधीर सिंह सुधाकर ने बताया कि  मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच संस्था देश भर के विभिन्न शहरों में रचनाकारों की रचनाओं का पाठ करवाती है और इस दौरान श्रोताओं द्वारा रचना को हरा, पीला और लाल कार्ड देकर वोट किया जाता है। एक ही दिन में 1,00 से अधिक ग्रीन वोट पाने वाले रचनाकारों को 'शतकवीर सम्मान' से सम्मानित किया जाता है। इसके अलावा क्रमश: 1,000, 2000, 3,000 और 5,000  से अधिक ग्रीन (श्रेष्ठ) वोट पाने वाले रचनाकारों को क्रमशः  'रचना प्रतिभा सम्मान',  'रचना रजत प्रतिभा सम्मान',  'रचना स्वर्ण प्रतिभा सम्मान' और 'लाल बहादुर शास्त्री साहित्य रत्न सम्मान' से उन्हीं के शहर में जाकर सम्मानित किया जाता है।  
इसी क्रम में जोधपुर से 20 रचनाकारों को सम्मानित किया गया।  इनमें राजस्थान पश्चिमी क्षेत्र, जोधपुर के निदेशक डाक सेवाएं एवं चर्चित साहित्यकार  व् ब्लॉगर कृष्ण कुमार यादव को 'रचना स्वर्ण प्रतिभा सम्मान', सेवानिवृत्त न्यायधीश एवं वरिष्ठ साहित्यकार  मुरलीधर वैष्णव को 'रचना रजत प्रतिभा सम्मान', चर्चित ब्लॉगर-साहित्यकार  आकांक्षा यादव को 'रचना प्रतिभा सम्मान' एवं  कवि व् समालोचक डॉ. रमाकांत शर्मा, मदन मोहन परिहार, हबीब कैफ़ी, हरिप्रकाश राठी, डॉ. पद्मजा शर्मा, डॉ. जेबा रशीद, पुष्पलता कश्यप, बसंत कुमार, भानु मित्र, अनिल अनवर, अक्षय गोजा, अर्जुन देव चारण, मनशाह नायक, दिनेश सिंदल, खुर्शीद खैराडी को  'शतकवीर सम्मान' से  सम्मानित किया गया।




आज ही के दिन शुरू हुआ था भारत में रेडियो प्रसारण

23 जुलाई को जब आप अपनी गाड़ी या घर में रेडियो सुनेंगे तो शायद आपको कुछ खास ना लगे पर ये दिन सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है। 23 जुलाई को ही भारत में मुंबई से रेडियो प्रसारण की पहली स्‍वर लहरी गूंजी थी। 23 जुलाई को भारत में संगठित प्रसारण के 90 साल पूरे हो रहे हैं। प्रसारण की एक मोहक और ऐतिहासिक यात्रा में रेडियो ने सफलता के कई आयाम तय किए हैं। आज रेडियो भारतीय जनमानस के जीवन का एक अभिन्न अंग है। भारत में रेडियो से जुड़ी दो अनूठी बातें हैं, पहली तो यह कि यहां के रेडियो प्रसारण का नाम विश्व भर में विशिष्ट है ‘आकाशवाणी’ और उतनी ही अनूठी है इस ‘आकाशवाणी’ की ‘परिचय धुन’, जिसके साथ कुछ आकाशवाणी केंद्रों पर सभा सभा का आरंभ होता है हालांकि आकाशवाणी के बहुत सारे केंद्र अब अपना प्रसारण 24 घंटे करते हैं इसलिए वहां आकाशवाणी की संकेत ध्वनि सुनने नहीं मिल पाती है। ‘विविध भारती’ का प्रसारण 24 घंटे है तो वहां आकाशवाणी की संकेत धुन अब नहीं बज पाती।

यहां यह जानकारी देना जरूरी है कि इस नायाब धुन को सन 1936 में ‘इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी’ के संगीत विभाग के अधिकारी वॉल्टर कॉफमैन ने कंपोज़ किया था। ‘आकाशवाणी’ के इस अनूठे नाम की भी बड़ी दिलचस्प कहानी है। वैसे अपने देश में सन 1924 के आसपास कुछ रेडियो क्लबों ने प्रसारण आरंभ किया था लेकिन आर्थिक कठिनाइयों के चलते यह क्लब नहीं चल सके। आगे चलकर 23 जुलाई सन 1927 को मुंबई में ‘इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी’ ने अपनी रेडियो प्रसारण सेवा शुरू की। 26 अगस्त 1927 को कोलकाता में नियमित प्रसारण शुरू हो गया। रेडियो प्रसारण का उद्घाटन करते हुए तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने कहा था भारत वासियों के लिए प्रसारण का एक वरदान हो जायेगा। मनोरंजन और शिक्षा की दृष्टि से भारत में विद्यमान संभावना का हमें स्वागत करना होगा लेकिन 1930 तक आते-आते इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी दिवालिया हो गई और 1 अप्रैल 1930 को ब्रिटिश सरकार ने ‘इंडियन स्टेट ब्रॉडकास्टिंग सर्विस’ का गठन किया। मजे की बात यह है कि तब रेडियो श्रम मंत्रालय के अंतर्गत रखा गया। बात चल रही थी ‘आकाशवाणी’ के नामकरण की, तो बता दिया जाए कि दरअसल उन दिनों कई रियासतों में रेडियो स्टेशन खोले गए थे जिनमें मैसूर रियासत के 30 वॉट के ट्रांसमीटर से डॉक्टर एम वी गोपालस्वामी ने रेडियो प्रसारण शुरू किया और उसे नाम दिया ‘आकाशवाणी’। आगे चलकर सन 1936 से भारत के तमाम सरकारी रेडियो प्रसारण को ‘आकाशवाणी’ के नाम से जाना गया।

शुरू से ही रेडियो के तीन महान लक्ष्य थे- सूचना, शिक्षा और मनोरंजन। सामने थी भारत की भौगोलिक विभिन्नताओं और कठिनाइयों की चुनौती। लोगों को यह जानकर अचरज होगा कि सन 1930 से 1936 के बीच मुंबई और कोलकाता जैसे केंद्रों से हर रोज दो समाचार बुलेटिन प्रसारित किए जाते थे। एक अंग्रेजी में और दूसरा बुलेटिन हिंदुस्तानी में। 1 जनवरी 1936 को आकाशवाणी के दिल्‍ली केंद्र के उद्घाटन के साथ ही वहां से भी समाचार बुलेटिन प्रसारित होने लगे। सबसे खास बात यह है कि उन दिनों चूंकि समाचार बुलेटिन शुरू ही हुए थे इसलिए खबरें किसी एजेंसी से खरीदी नहीं जाती थी बल्कि समाचार वाचक उस दिन के समाचार पत्र लेकर मुख्य समाचार पढ़ दिया करते थे। लेकिन सन 1935 में सेंट्रल न्यूज़ आर्गेनाईजेशन यानी केंद्रीय समाचार संगठन की स्थापना के बाद समाचार बुलेटिनों का सुनियोजित ढंग से विकास हुआ। स्वतंत्रता के समय आकाशवाणी के कुल 18 ट्रांसमीटर थे। आकाशवाणी के नेटवर्क में कुल 6 रेडियो स्टेशन और पांच देसी रियासतों के रेडियो स्टेशन थे।

सन 1951 में रेडियो के विकास को पंचवर्षीय योजना में शामिल कर लिया गया उसके बाद से आकाशवाणी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आकाशवाणी ने समाज के हर तबके को अपने परिवार में शामिल किया है, चाहे ग्रामीण श्रोता हो, चाहे श्रमिक, कामकाजी महिलाएं हों या बुजुर्ग और बच्चे या युवा। सबके लिए आकाशवाणी के रोचक कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। आज देश की लगभग 98 प्रतिशत आबादी की पहुंच में है रेडियो।

21वीं सदी के इस तकनीकी युग में आकाशवाणी ने अपनी शक्ल बदली है। अब लोकल फ्रीक्वेंसी मॉड्यूलेशन यानी एफ एम केंद्रों का विस्तार हुआ है। और कार्यक्रमों की तकनीकी गुणवत्ता भी बढ़ी है। रेडियो आपके हाथ में है, आपके मोबाइल में है, इंटरनेट के जरिए पूरी दुनिया में इसकी पहुंच है। शुरुआती दौर से ही आकाशवाणी रचनात्मक पहल करती आ रही है। महत्‍वपूर्ण घटनाओं, समारोहों या खेलों की रेडियो कमेंट्री हो, रेडियो नाटक, रेडियो फीचर, फोन इन कार्यक्रम जैसी रचनात्मक विधाएं या फिर त्वरित प्रतिक्रिया वाले कार्यक्रम। sms का फरमाइशी कार्यक्रम हो या फिर शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम, साहित्यिक कृतियों के रेडियो रूपांतरण, गीतों भरी कहानियां, वार्ता, बाजार भाव, मौसम का हाल सब आकाशवाणी का हिस्‍सा हैं।

बदलते वक्‍त के साथ रेडियो ने अपनी नई विधाएं गढ़ी हैं। और इन्हें जनता के संस्कारों का हिस्सा बनाया है। 23 जुलाई 1969 को मनुष्य ने चंद्रमा पर कदम रखा और उसी दिन आकाशवाणी दिल्ली से आरंभ हुआ ‘युववाणी’ कार्यक्रम। उद्देश्य था छात्र वर्ग और युवा पीढ़ी को प्रसारण का भागीदार बनाना। आगे चलकर इस युववाणी ने रंगमंच, अभिनय, संगीत और मीडिया के अनेक क्षेत्रों की बहुत प्रतिभाओं को निखारा। आकाशवाणी के अत्यंत महत्वपूर्ण योगदानों में शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत की अनमोल विरासत को सँजोना और लोकप्रिय करनास भी शामिल है। गुजरे जमाने के अनेक महत्वपूर्ण संगीतकार, शास्त्रीय संगीत के अनेक विद्वान, साहित्यकार और पत्रकार आकाशवाणी से जुड़े रहे हैं। आज भी आकाशवाणी के संग्रहालय में इनकी अनमोल रिकॉर्डिंग मौजूद है। महादेवी वर्मा जयशंकर प्रसाद, ‘निराला’, बच्‍चन जी, पं. रमानाथ अवस्थी वगैरह की अनमोल रचनाएं आकाशवाणी की लाइब्रेरी में मौजूद है। और अब तो प्रसार भारती ने सीडीज़ की शक्‍ल में इन्‍हें आपके लिए उपलब्‍ध भी करवा दिया है। इसे प्रसार भारती आर्काइव की वेबसाइट से खरीदा जा सकता है। इसमें वो रामचरित मानस गान भी शामिल है जो आपकी सुबहों का हिस्‍सा होती थी।

भारत में आकाशवाणी के लोकप्रियता का एक नया इतिहास तब रचा गया जब 3 अक्टूबर 1957 को ‘विविध भारती सेवा’ आरंभ हुई। ‘विविध भारती’ के फरमाइशी फिल्मी गीतों के कार्यक्रम घर घर में गूंजने लगे। फिल्मी कलाकारों से मुलाकात, फौजी भाइयों के लिए ‘जयमाला’, ‘हवा महल’ के नाटक और अन्य अनेक कार्यक्रम जन-जीवन का हिस्सा बन गए। सन 1967 में विविध भारती से प्रायोजित कार्यक्रमों की शुरुआत हुई। फिर तो रेडियो की लोकप्रियता शिखर पर पहुंच गई। अमीन सायानी की बिनाका गीतमाला आज भी हमारी यादों का हिस्‍सा है।

आकाशवाणी की ‘ध्वनि तरंगें’ सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी गूंजा करती है। वैसे अक्टूबर 1939 में पश्तो भाषा विदेश प्रसारण की शुरुआत हुई थी। विदेश प्रसारण सेवा आज 25 से भी अधिक भाषाओं में कार्यक्रम करती है। इसके अलावा आकाशवाणी की वेबसाइट पर लाइव स्‍ट्रीमिंग और मोबाइल एपलीकेशन के ज़रिए विविध भारती, एफ एम गोल्‍ड, रेनबो, समाचार सेवा, शास्‍त्रीय संगीत के चौबीस घंटे चलने वाले रेडियो चैनल ‘रागम’ और अलग अलग क्षेत्रीय भाषाओं के मनोरंजक कार्यक्रम सारी दुनिया में सुने जा सकते हैं।

जिन दिनों में छोटा पर्दा नहीं था तब रेडियो कमेंट्री विभिन्न घटनाओं को शब्दचित्र अपने श्रोताओं के लिए खींच देती थी चाहे आजादी की पूर्व संध्या पर पंडित नेहरू ने अपना प्रसिद्ध भाषण ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ (नियति से साक्षात्कार) संसद में दिया था। आकाशवाणी के माध्यम से इसे पूरे राष्ट्र में सुना था। आज भी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी रेडियो के ज़रिये अपनी ‘मन की बात’ लोगों तक पहुंचाते हैं। आज भारत में अनेक प्राइवेट एफ एम चैनल श्रोताओं का मनोरंजन करते हुए रेडियो की परंपरा को समृद्ध कर रहे हैं।

आज आकाशवाणी प्रसारण के तीनों रुपों यानी शॉर्टवेव, मीडियम वेव और FM के जरिए देश-विदेश में उपलब्ध है। 90 साल पहले ध्वनि तरंगों ने भारत में एक नन्हा कदम रखा था और आज भारतीय प्रसारण ने एक परिपक्व उम्र को छुआ है। इस उम्र में भी सपनों के अंकुर हरे हैं। स्मृतियों के एल्बम भरे हैं। और तय करने को है एक लंबा सफर। प्रसारण के 90 बरस प्रसारकों और श्रोताओं के लिए उत्सव के क्षण हैं।

 ✍🏻 *ममता सिंह*
उदघोषिका विविध भारती, मुंबई

बुधवार, 5 जुलाई 2017

राजस्थान की बालिका वधू रूपा यादव अब बनेगी डॉक्टर

जब मन में लगन हो तो परिस्थितियाँ भी रास्ता दिखाने को मजबूर हो जाती हैं।  ऐसा ही हुआ राजस्थान की बालिका वधू रूपा यादव के साथ। जयपुर के करेरी गांव की रहने वाली रूपा यादव की कहानी दिलचस्प और प्रेरणादायक है। भारत में बाल विवाह पर कानूनी प्रतिबंध है, लेकिन राजस्थान समेत देश के कई अन्य राज्यों में आज भी बच्चों की शादी काफी कम उम्र में कर दी जाती है।  जब रूपा  महज आठ साल की थी और तीसरी कक्षा में पढ़ रही थी तभी उसकी शादी सातवीं में पढ़ने वाले शंकर लाल से कर दी गई। इतना ही नहीं उसी समारोह में उसकी बड़ी बहन की शादी शंकर के बड़े भाई से कर दी गई। 

जिस उम्र में रूपा को शादी का मतलब भी नहीं पता था, उस उम्र में वह शादी के बंधन में बंध गईं। जब वह दसवीं कक्षा में पहुंची तो उसका गौना हुआ। यानी वह  अपने माता-पिता का घर छोड़कर अपनी ससुराल आ गई। लेकिन रूपा की मेहनत और लगन ने अंतत: रंग दिखाया और 21 साल पूरा करने से पहले ही अब वह राजस्थान के एक सरकारी मेडिकल कॉलेज से डॉक्टर बनने की पढ़ाई करेगी। 

सीबीएसई की ओर से आयोजित राष्ट्रीय प्रवेश-सह-पात्रता परीक्षा (NEET) की परीक्षा में रूपा ने सफलता हासिल की है। कोटा में मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने वाली रूपा ने तीसरे प्रयास में इस सफलता को हासिल किया है।  रूपा बताती हैं कि कोटा में एक साल मेहनत करके मैं मेरे लक्ष्य के बहुत करीब पहुंच गई।  एक साल तैयारी के बाद मेरा सिलेक्शन नहीं हुआ।  अब आगे पढ़ने में फिर फीस की दिक्कत सामने आने लगी।  इस पर पारिवारिक हालात बताने पर संस्थान ने मेरी 75 प्रतिशत फीस माफ कर दी। अब वह डॉक्टरी की पढ़ाई कर समाज सेवा करने के साथ लड़कियों के लिए प्रेरणा बनना चाहती है। हालांकि इस बेटी को इस मुकाम तक पहुंचाने में उसके ससुराल वालों का भी बड़ा हाथ है।  ससुराल वालों ने मदद की तो रूपा ऐसा काम कर दिखाया है, जिसके बाद शायद दुनिया के कोई मां-बाप अपनी बेटी का बाल विवाह करने से पहले हजार बार सोचेंगे। 


रूपा का सफर आसान नहीं था। उसे और उसके परिवार को पिछड़ी मानसिकता के लोगों के खूब ताने सुनने पड़े थे । गांव के लोग रूपा के ससुराल वालों को कहते थे इसे पढ़ने के बजाय घर में रखो और रसोई का काम करवाओ। पढ़ाई-लिखाई में कुछ नहीं रखा, लेकिन रूपा के पति को उसकी मेहनत और लगन पर पूरा भरोसा था। पति और ससुराल वालों ने देखा कि रूपा पढ़ने में मेधावी है, तो उन्होंने उसे भरोसा दिलाया कि वह अपनी पढ़ाई जारी रखे वे हरसंभव उसकी मदद करेंगे।  फिर पति व जीजा बाबूलाल ने रूपा का एडमिशन गांव से करीब 6 किलोमीटर दूर प्राइवेट स्कूल में कराया।  रूपा की सास अनपढ़ हैं, लेकिन किसी की परवाह न करते हुए उन्होंने भी अपनी बहू  को स्कूल जाने दिया जाए और पढ़ाई आगे जारी रखने दिया। 10वीं में रूपा ने  84 फीसदी अंक प्राप्त किए, तो हौसले में और भी वृद्धि हुई। 

रूपा के डॉक्टर बनने के पीछे भी एक दर्दनाक कहानी छुपी हुई है।  पढ़ाई के दौरान ही उसके चाचा भीमाराम यादव की हार्ट अटैक से मौत हो गई।  इसके बाद तो रूपा ने ठान लिया  कि वह डॉक्टर बनेगी, क्योंकि उन्हें समय पर उपचार नहीं मिल पाया था। लेकिन इसके लिए रूपा और उसके परिवार को काफी संघर्ष करना पड़ा। इस सफलता को हासिल करने के बाद रूपा कहती हैं, 'मेरे ससुराल वाले मेरे घरवालों की तरह छोटे किसान हैं, खेती से इतनी आमदनी नहीं हो पा रही थी कि वे मेरी उच्च शिक्षा का खर्च उठा सकें।  फिर मेरे पति ने टैक्सी चलानी शुरू और अपनी कमाई से मेरी पढ़ाई का खर्च जुटाने लगे। '

नारी सशक्तिकरण का अनूठा उदाहरण पेश करते हुये आज रूपा यादव उन तमाम लड़कियों के लिए प्रेरणा स्रोत के रूप में उभरी हैं, जो प्रतिभावान होते हुए भी चूल्हे-चौकी में अपना पूरा जीवन गँवा देती हैं। रूपा भाग्यशाली हैं कि उन्हें अपने ससुराल पक्ष से पूरा सपोर्ट मिला और उसके बाद उनके जज्बे ने वो कर दिखाया की आज वह एक अद्भुत मिसाल बन गई हैं।